Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 352
________________ जहण्ण-सामित्तपरूवणा २९९ हिदि० वट्ट० । इन्थि०-णवुस-पचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थवि०-भग-दुस्सरअणादे० जह० हिदि० कस्स ? अण्ण० चदुगदियस्स मिच्छादि० सागार-जा. तप्पाअोग्गविसुद्ध० । हस्स-रदि-भय-दुगु. जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. अपुवकरणखवग० चरिमे जह• हिदि० वट्ट० । णिरयायु० जह० हिदि कस्स ? अएणद. दुगदिय० सागार-जा० तप्पाओग्गविसु० । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस. तप्पाओग्ग-संकिलि० । देवायु० तं चेव । णिरयगदि-तिएिणजादि-णिरयाणुपु०-सुहुम-अपज०-साधार० जह• हिदि. कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि० तप्पाओग्गविसु० । तिरिक्खगदितिरिक्खाणुपु०-उज्जो०-णीचागो० जह० हिदि० कस्स० १ अएण. सत्तमाए पुढवि० णेरइ० मिच्छादि० सागार-जा० सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह जह० हिदि० वट्ट० । मणुसग०-ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरिसभा-मणुसाणु० जह० हिदि कस्स. ? अण्ण० देव णेरइयस्स सम्मादि० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० । देवगदि-पंचिंदि०वेवि०-आहार-तेजा-क०-समचदु०-दोअंगो०-वरण०४-देवाणु०-अगु०४-पसस्थवि०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि०-तित्थय. जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण. स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका मिथ्यादृष्टि जीव जो साकारजागत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । हास्य, रति, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर दो गतिका जीव जो साकार जागत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह उक्त दोनों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी वही है । नरकगति, तीन जाति, नरक गत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्न प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकारजागृत है, सर्वविशुद्ध है, सम्यक्त्वके अभिमुख है और जघन्य स्थितिबन्ध अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराचसंहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके अघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सम्यग्दृष्टि है, साकारजागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति, पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक और आहारक दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि पाँच, निर्माण और तीर्थकर प्रक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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