Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 361
________________ ३०८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे लोभसंज-जस०-उच्चा०-पंचंत, जह• हिदि. कस्स० १ अरण. अणियट्टिखवगरस चरिमे हिदि० वट्ट० । सेसं संजदभंगो । परिहार• आहारकायजोगिभंगो । णवरि सामित्तदो सहाणेसु याओ सम्वविसुद्धाश्रो ताओ दंसणमोहणीयखवगस्स से काले कदकरणिज्जो होहिदि त्ति अथवा सत्थाणे अप्पमत्तसव्वसुद्ध० । सेसाणं आहारकायजोगिभंगो । सुहुमसंपरा ओघं । १३४. संजदासंजदा. पंचणा०-छदंसणा-सादावे-अहकसा०-पुरिस-हस्सरदि-भय-दुगु-देवगदि-पसत्यहावीस-तित्थयर-उच्चा०-पंचंत० जह० हिदि. शानी जीवोंके समान है। सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, संज्वलन लोभ. यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अनिवृत्तिक्षपक जो अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके जधन्य स्थितिबन्धका स्वामी संयत जीवोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारककाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि स्वस्थानमें जो सर्वविशुद्ध परिणामोंसे बँधनेवाली प्रकृतियाँ हैं उनको जो तदनन्तर समयमें कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होगा ऐसा दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है, अथवा स्थानमें जो अप्रमतसंयत है, सर्व विशुद्ध परिणामवाला है वह उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारककाययोगी जीवोंके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है।। विशेषार्थ-बन्धकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंकी स्थिति एक समान है, इसलिए संयतोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी मनःपर्ययज्ञानके समान कहा है। सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत मात्र नौवें गुणस्थानतक होते हैं इस लिए इनमें दसवें गुणस्थानमें बन्धव्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व क्षपक अनिवृत्तिकरणको दिया है। शेष स्थिति संयत जीवोंके समान है, इसलिए इन दोनों संयतोंके शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी संयत जीवोंके समान कहा है। परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वको दो भागोंमें विभक्त कर दिया है-जो वहां सर्वविशुद्ध परिणामोसे प्रकृतियोंका बन्ध होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अलगसे कहा है और शेष असाता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व आहारककायजोगी जीवोंके समान कहा है । आशय यह है कि पाँच शानावरण आदि जिन प्रकृतियोंका सातवें गुणस्थानमें बन्ध होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी या तो जो अनन्तर समयमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगाऐसा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीव कहना चाहिए या खस्थानमें ही सर्वविशुद्ध परिणामवाला अप्रमत्तसंयत जीव कहना चाहिए और असाता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारककाययोगी जीवोंके समान तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला प्रमत्तसंयत जीव कहना चाहिए । १३४. संयतासंयत जीवों में पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, पाठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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