Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ ३२८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे उक्क तिरिण सम । सेसाणं तस०-पज्जत्ताणं देवगदिपंचगस्स च उक्क० अणु. जह० एग०, उक्क० बेसम । १६१. इत्थिवेदेसु पंचणा-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसक०--भय-दुगुच्छ-- तेजा.क. वएण०४--अगु०-उप-णिमि-पंचंत उक्क हिदि० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । सादासा-इत्थि०-गवुस-हस्स-रदि-अरदि-सोगणिरयगदि-तिरिक्खगदि-जादि४-आहार०-पंचसंठा-अहार०अंगो०-पंचसंघ-णिरयतिरिक्खाणुपु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०-थावरादि०४--थिराथिर-सुभासुभ-दूभगदुस्सर-अणादे-जस-अजस०-णीचा० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क. अंतो० । पुरिस-मणुसगदि-पचिंदि०--समचदु०--ओरालि अंगो०--वजरिसभा--मणुसाणु०पसस्थवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चागो उक. ओघं । अणुक जह० एग०, पर्याप्त, तथा देवगति पञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। विशेषार्थ-जो एकेन्द्रिय जीव ब्रह्मलोकके कोणसे मरकर अधोलोकके कोणमें विदिशामें उत्पन्न होता है, उसके तीन समयवाली विग्रहगति होती है और उसके इन तीन समयों में कार्मणकाययोग होता है। ऐसा जीव एकेन्द्रिय होनेसे इसके किसी भी प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता। इसीसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है, क्योंकि यह यथासम्भव संशी तिर्यञ्च और मनुष्यके तथा देव और नारकीके होता है और इनके अधिकसे अधिक दो मोड़ेवाली ही विग्रहगति होती है। अब रहा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालका विचार सो यहाँ मूलमें जिन प्रकृतियोंका नामोल्लेख किया है,उनका बन्ध ऐसे जीवके भी होता रहता है, इसलिए इन पाँच शानावरण आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। तथा शेष रहीं स्त्रीवेद, पुरुषवेद आदि कार्मण काययोगमें बँधनेवाली ३३ प्रकृतियाँ सो इनका तीन मोड़ा लेकर उत्पन्न होनेवाले कार्मणकाययोगी जीवके बन्ध नहीं होता, अतएव उनके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। यहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय स्पष्ट ही है, क्योंकि कार्मणकाययोगका ही जघन्य काल एक समय है । अतएव कार्मणकाययोगमें इनका जघन्य काल एक समय बन ही जाता है। १६१. स्त्रीवेदवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, तिर्यश्चगति, चार जाति, आहारक शरीर, पाँच संस्थान, आहारक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अना. देय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, त्रसकाय, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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