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जहण्ण-सामित्तपरूवणा
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१२८. आहार०-आहारमि० पंचणा० छदंसरणा० - सादावे ० - चदुसंज० - पुरिस हस्स-रदि-भय-दुगु ं०-देवगदि ० - पंचिंदि० - तिणिसरीर० - समचदु० - वेडव्वि० अंगो०वरण० ४- देवाणुपु० गुरु ०४ - पसत्थवि-तस०४-थिरादिछ० - णिमि० - तित्थय ०ऊच्चागो०- पंचंतरा० जह० द्विदि० कस्स० ? अण्ण० पमत्तसंजद० सागार-जा० सव्वविसु० । असादा० अरदि-सोग - अथिर असुभ अजस ० जह० हिदि० कस्स ० १ अण्ण० पमत्त० सागार- जा ० तप्पा ओग्गविसु० | देवायु० जह० हिदि ० कस्स ? अरण • सागार-जा० तप्पा ओग्गसंकलि० । कम्मइग० ओरालियमिस्सभंगो । raft यु० गत्थि । तित्थय० दुर्गादियस्स' ।
जीवके कहा है यहाँ उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व जो पर्याप्त होने पर सम्यक्त्वको प्राप्त होगा ऐसे जीवके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें आयुका बन्ध नहीं होता यह स्पष्ट ही है ।
१२८. श्राहारककाययोगी और श्राहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-तैजस-कार्मण तीन शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । साता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामपाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके आयुका बन्ध नहीं होता । तथा इनके तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दो गतिका जीव है ।
विशेषार्थ - - आहारक काययोग और श्राहारकमिश्रकाययोग प्रमत्तसंयत जीवके होता है, इसलिए प्रमत्तसंयत जीवके बँधनेवाली प्रकृतियों की अपेक्षा यहाँ जघन्य स्वामित्व कहा है । विशेषता मूलमें कही हो है । श्रदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग के गुणस्थान एक समान ही हैं तथा औदारिकमिश्रकाययोगके समान यह योग भी एकेन्द्रियोंके होता है इसलिए इसमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व श्रदारिक मिश्र - काययोगके समान कहा है । मात्र यहाँ इतनी विशेषता है कि एक तो कार्मण काययोगमें श्रयुकर्मका बन्ध नहीं होता और दूसरे यद्यपि कार्मणकाययोग में नरकगति, मनुष्यगति और देवगतिके जीवके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध होता है पर इसके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी देवगति और मनुष्यगतिका जीव ही है, क्योंकि इसके योग्य सर्वविशुद्ध परिणाम इन दो गति कार्म काययोगी जीवके ही हो सकते हैं।
१. मूलप्रतौ दुगदियस तित्थय० इस्थि० इति पाठः ।
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