________________
१४४
महाबंधे दिदिबंधाहियारे उक्त हिदिबं० विसे । यहिदिवं. विसे । मोह० उक्क हिदिवं० सं०गु०। यहिबं० विसे । एवं वेदगस०-सासण. । णवरि मोह. उक्क हिदिवं. विसे । यहिदिवं० विसे।
एवं परत्यागअप्पाबहुगं समत्तं ।
एवं भूयो हिदिअप्पाबहुगं समत्तं । एवं मूलपगदिहिदिबंधे चउवीसमणियोगद्दारं समत्तं ।
विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
इस प्रकार परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
इस प्रकार भूयः स्थितिबन्ध अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार मूल प्रकृति-स्थितिबन्धमें चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org