________________
१६०
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वडि-हाणि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवहि० जह० एग०, उक्क० तिरिण सम० । एवं पंचिंदिय'अपज्ज।
३७३. मणुस ३ सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणिबंधंतरं जह० एग०, उक्क. अंतो। एवं अवहि० । असं गुणवडि-हाणि-अवत्तव्वबं० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं ।
३७४. पंचिंदिय-तसपज्जत्ता सत्तएणं क. दोएिणवडि-हाणि-अवहिदबंधतरं जह० एग. उक० अंतो०। संखेज्जगुणवडि-हाणि पंचिंदियतिरिक्वभंगो । असंखेज्जगुणवडि-हाणि-अवत्तव्व० मूलोघं । णवरि सगहिदि भाणिदव्वं । तस-र. और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुण वृद्धि और संख्यागुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सात कौके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-पहले भुजगारबन्धका उत्कृष्ट काल चार समय बतला आये हैं, इसलिए यहाँ सामान्य तिर्यञ्चोंमें अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल चार समय कहा है। परन्तु जो एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय विकलत्रय या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होगा, उसके ही यह अन्तर काल सम्भव है। वैसे अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल तीन समयसे अधिक उपलब्ध नहीं होता। यही कारण है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त जीवोंमें अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल तीन समय कहा है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। इसीसे इनमें संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण कहा है, क्योंकि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमेंसे किसीने कायस्थितिके प्रारम्भमें संख्यातगुणवृद्धिबन्ध या संख्यातगुणहानिबन्ध किया। पश्चात् अपनी कायस्थितिके अन्तमें यह बन्ध किया,तो कुछ कम उक्त काल प्रमाण यह अन्तर आ जाता है। अन्य मार्गणाओं में भी जहाँ कायस्थिति प्रमाण अन्तर कहा हो,वहाँ इसी प्रकार यह अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए।
___ ३७३. मनुष्यत्रिकमें सात कर्मोके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अवस्थितबन्धका अन्तर है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है।
३७४. पञ्चेन्द्रियपर्याप्त और असपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोके दो वृद्धिबन्ध, दो हानिबन्ध और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इनके संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यान्तगुणहानिबन्धका अन्तर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोके समान है। तथा असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध, असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्तव्यबन्धका अन्तर मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका उत्कृष्ट अन्तर कहते समय वह अपनी.
१. मूलप्रतौ पंचिंचिय-तिरिक्खअपज्जत्त० इति पाठः । २. मूलप्रतौ तसपज्जत्त इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org