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उकस्स-सामित्तपरूवणा ७६. अणुदिस याव सव्वह ति पंचणा-छदसणा-असादावे०-बारसक.पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छ-मणुसगदि-पंचिंदिय०-ओरालिय०-तेजा-क-समचदु०-ओरालिय अंगो०-बंजरिसमसं०-वरण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४--पसत्थवि०तस०४-अथिर-'असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज०-अजस०-णिमिण-तित्थयर०-उच्चागो०पंचत० उक्क० हिदि. कस्स० १ सव्वसंकिलि । सेसाणं तस्सेव सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलि । आयु० उक्क डिदि० कस्स० ? अण्ण० तप्पाओग्गविसुद्ध० उक. आबा० ।
८०. एइंदिएमु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पवरि अएपद बादरस्स पज्जत्तस्स सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलि० । एवं बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्ता। एवरि यं उहिस्सदि तं गहणं कादव्वं । एदेण विधिणा बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिंदि० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
७९. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? सबसे संक्लेश परिणामवाला उक्त देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट श्राबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला उक्त देव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी है।
विशेषार्थ देवों में कुल १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। उसमें भी एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध ऐशान कल्प तक ही होता है। भवनत्रिकोंमें तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध नहीं होता। देवोंमें पहले जिन १०१ प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा है, वह सहस्रार कल्प तक ही होता है। आगे अपने-अपने योग्य आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। तिर्यञ्चायु, तिर्यश्चद्विक और नीचगोत्रका बन्ध भी बारहवें कल्प तक ही होता है। आगे इनका बन्ध नहीं होता। इसलिए इतनी विशेषताओंको ध्यानमें रखकर देवोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व घटित करना चाहिए । मात्र नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इसलिए वहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व सम्यग्दृष्टि देवोंके ही कहना चाहिए । यहाँ किस प्रकृतिका किस अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है यह सब विशेषतामूलमें कही ही है।
८०. एकेन्द्रियोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि साकारजागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त, अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जहाँ जिसका उद्देश्य हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए। इसी विधिसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है।
१. मूलप्रतौ-असुभदूभगदुस्सरमादेज- इति पाठः ।
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