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उक्कस्स सामित्तपरूवणा
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हिदि० कस्स० ? श्रएणदर मलुसस्स वा तिरिक्खस्स वा सागार- जा० उक्क० संकिलि० | देवगदि०४ - तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्पद० सम्मा० तपाओग्गसंकलि० उक० संकिलि० वट्ट० । सेसाणं उक्क० हिदि० कस्स० ? tro मणुस० तिरिक्ख० पंचिदिय० सरिण ० सागार - जा० संकिलि० । दो आयु० मणुस पज्जत्तभंगो ।
तप्पाग्ग
८७. वेडव्विये पंचरणा० - रणवदंसणा ० - असादा०-मिच्छत्त-सोलसक०स०अरदि-सोग-भय-दुगु० - तिरिक्खग ०- ओरालि ० तेजा क० - हुडसंठा० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु०-अगु०४- उज्जोव ० - बादर- पज्जत्त-पत्तेयसरीर - अथिरादिपंच० - णिमिणणीचागो०- पंचंत राइगाणं उक्क० द्विदि० कस्स० ? अणद० देवस्स वा सहस्सारंतस्स रइगस्स वा मिच्छादि० सागार - जा० उक्क० संकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरि० । णामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय संशी श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा दो आयुओंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है ।
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विशेषार्थ - काययोग चारों गतियों में संभव है, इसलिए काययोगमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व श्रोघके समान बन जाता है। श्रदारिककाययोग तिर्यञ्च और मनुष्योंके ही होता है, इसलिए इसमें श्रधके समान सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व नहीं प्राप्त होता । अतः जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व श्रोघसे मनुष्य और तिर्यञ्चोके या मनुष्योंके कहा है, वह तो उसी प्रकार कहना चाहिए और जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व चार गतिके जीवोंके कहा है वह देव और नारकी के न कहकर केवल मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही कहना चाहिए। तथा जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी देव या देव और नारकी जीव कहा है, उनका स्वामी मनुष्य और तिर्यञ्चको कहना चाहिए। मात्र उनका इस योगमें आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है; इतना विशेष जानना चाहिए। औदारिकमिश्र काययोग भी मनुष्य और तिर्यञ्चके ही होता है। इसमें नरकायु, देवायु, नरकद्विक और आहारकद्विकके सिवा ११४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । शेष विशेषता मूलमें कही ही है । यहाँ जो खास बात ध्यान देने योग्य है, वह यह कि श्रदारिकमिश्र काययोगमें देवचतुष्कका बन्ध मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व सम्यग्दृष्टि जीवके घटित करके बतलाया है ।
८७. वैक्रियिककाययोगमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरोर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिरादिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला अन्यतर सहस्रार कल्प तकका
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