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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
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उक्क० संकि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणा० । चदुराणं युगाणं ओघं । एइंदिय०आदावथावर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० ईसारांतदेव० मिच्छादिट्टि० सागार- जा० उक्क०संकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणा० । देवगदि - तिणिजादिदेवाणुपु०-सुहुम-अपज्जत्त-साधार० उक० हिदि० कस्स ० १ अरणदर० मणुसस्स वा तिरिक्वस्स वामिच्छादिडि० सागार- जा० तप्पा ओग्गसंकिलि० । आहार० - आहार० अंगो० - तित्थयरं श्रधं । वचिजो० असच्चमो० सो चेव भंगो । वरि उक्कस्सI संकिलिद्वाणं तप्पा ओग्गसंकिलिद्वाणं च अपद० सरिणस्स त्ति भाणिदव्वं ।
०-उप०
८६. कायजोगि॰ मूलोघं । ओरालियका • मणुसपज्जत्तभंगो । रावरि मणुस्सस्स वा तिरिक्खस्स वा पंचिंदिय० सरिण० त्ति भाणिदव्वं । ओरालियमि० पंचरणा०णवदंसणा०-सादावे०-मिच्छत्त- सोलसक० स ० - अरदि-सोग-भय-दुगु० -तिरिक्खगदि - एइंदि० - ओरालि ० -तेजा० क० - हुडसं ० चरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगुरु ०थावर मुहुम-अपज्जत्त-साधार०-अथिरादिपंच०-णीचागो० णिमिण-पंचतरा० उक्क० संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। चार आयुओंके उत्कृष्ट स्थिति-" बन्धका स्वामी श्रोघके समान है । एकेन्द्रियजाति, श्रातप और स्थावर के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला श्रन्यतर ऐशान कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति, तीन जाति, देवगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जीव उक्त प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा श्राहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी के समान है । वचनयोगी और असत्य मृषावचनयोगी जीवोंके इसी प्रकारका भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि यहाँपर उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला और तत्प्रायोग्य संक्केश परिणामवाला अन्यतर संशी जीव ऐसा कहना चाहिए ।
विशेषार्थ - पाँचौं मनोयोग और सत्य, असत्य, तथा उभय वचनयोग संक्षी पञ्चेन्द्रियके होते हैं। तथा सामान्य और अनुभय वचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर होते हैं, पर यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार चल रहा है, इसलिए इन दोनों वचनयोगोंकी अपेक्षा संज्ञी जीवके हो उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करना चाहिए । यहाँ सब योगों में बन्ध १२० प्रकृतियों का ही होता है। शेष विशेषता मूलमें कही ही है ।
८६. काययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। श्रदारिककाययोगी जीवोंका भङ्ग मनुष्य पर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँपर पञ्चेन्द्रिय संशी, मनुष्य और तिर्यञ्च जीव स्वामी हैं, ऐसा कहना चाहिए । श्रीदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, ऋरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णंचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदिक पाँच, नीच गोत्र, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परि
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