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ट्ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा
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१५. तिरिक्ख- मसाणं चोदसजीवसमासाणं जह० ट्ठिदि० तुल्ला थोवा । तेरसणं जीवसमासागं उक्क० द्विदिवं ० संखेज्जगु० । पंचिदिय- सरिए - पज्जत्तयस्स उक्क० द्विदिवं ० सं ० गु० ।
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१६. रियगदि-रियाणुपु० [ सव्वत्थोवा ] पंचिंदिय - असरिण - पज्जत्त ० जह० द्विदि० बं० । तस्सेव उक्क० द्विदिबं० विसेसाधियो । पंचिंदिय- सरि-पज्जत्त० जह० द्विदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव उक्क० हिदिबं० संखेज्जगु० ।
१७. देवदि ० ४ सव्वत्थोवा पंचिदियस्स असरि पज्जत्तयस्स जह० हिदिo | तस्सेव उक्क० द्विदिबं० विसे० । संजदस्स जह० ट्ठिदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव उक्कस्स ० विदिबं० संखेज्जगु० । एवं संजदासंजदा असंजदचत्तारि । पंचिदिय० सरिण० मिच्छादिद्वि० पज्जत्त० जह० द्विदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव उक्क० डिदि - बं० संखेज्जगु० ।
बन्ध तेतीस सागरप्रमाण होता है । यतः ये स्थितियाँ उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी हैं, इससे यहां उत्तरोत्तर असंख्यातगुण स्थितिबन्ध कहा है ।
१५. तिर्थञ्चायु और मनुष्यायुका चौदह जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकके जघन्य स्थितिबन्ध एक समान और सबसे स्तोक होता है। इससे तेरह जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । इससे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है ।
विशेषार्थ-चौदह जीवसमासोंमें उक्त दोनों आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण होता है । अन्तिम जीवसमासको छोड़कर शेष तेरहमें इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिवर्षप्रमाण होता है और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीन ल्यप्रमाण होता है । यतः यहां प्रथमसे दूसरा संख्यातगुणा और दूसरेसे तीसरा असंख्यातगुणा है, अतः इनका उक्त प्रकारसे अल्पबहुत्व कहा है ।
१६. नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है । इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इससे पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है ।
विशेषार्थ - यहाँ पर पञ्चेन्द्रिय अशी पर्याप्त के स्थितिबन्धके कुल विकल्प पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण हैं और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके श्रन्तः कोटाकोटि सागर से लेकर अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तक हैं । यही कारण है कि उक्त प्रकृतियोंका पूर्वोक्त जीवसमासोंमें उक्त प्रकार से अल्पबहुत्व घटित हो जाता है ।
१७. देवगतिचतुष्कका पञ्चेन्द्रिय श्रसंज्ञी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे संयतके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इस प्रकार इससे आगे संयतासंयत और असंयतचतुष्कके अल्पबहुत्व कहना चाहिए। पुनः इससे पञ्चेन्द्रिय संशी factsष्टि पर्याप्त जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ।
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