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महाबंधे विदिबंधाहियारे देवायु० उक० द्विदि० एकत्तीस [सागरोवमाणि]। पुवकोडितिभागं आवा० । [कम्महिदी कम्म] णिसे।
४२. चक्खुदं०-अचक्खुदं० मूलोघं । ओधिदं० ओधिणाणिभंगो।।
४३. लेस्साणुवादेण किरणले. देवायु० उक्क० हिदि. सागरोवम० सादिरेग० । पुवकोडितिभागं आबा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । सेसं पवुसगभंगो। णील-काऊणं वेउव्वियछक्क-चत्तारिजादि-आदाव-थावर-मुहुम-अपज्जत्तसाधार-तित्थकरं उक्क, हिदि० अंतोकोडाको । अंतोमु० आवा० । [आवाधू० कम्महि०] कम्मणिसे० । णिरयायु० उक्क० हिदि सत्तारस-सत्तसागरोव० । पुव्वकोडितिभागं आवा० । [कम्महिदी] कम्मणिसे० । देवायु उक्क. हिदि० सागरोवम सादि । पुव्वकोडितिभागं आबा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । सेसं अोघभंगो। तेउए पंचिंदिय-ओरालिय अंगो०-असंपत्ता-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० उक्क० हिदि० अहारस साग । अहारस वाससदाणि आबा। [धावाधू० कम्मट्ठि] कम्मणिसे । सेसं मूलोघं । वरि तिरिवख-मणुसायु० उक्क० हिदि. पुवकोडी । छम्मासं च आबा० । [कम्मट्ठिदी कम्म-] णिसे ! देवायु० उक० हिदि बेसाग० सादिरे० । पुन्चकोडितिभागं आवा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इकतीस सागर है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है।
४२. चक्षुदर्शनवाले और अचक्षुदर्शनवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका मा मुलोधके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है।
४३. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले जीवोंके देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक एक सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके वैक्रियिक छह, चार जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे सत्रह सागर और सात सागर है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण श्राबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक एक सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि ओघके समान है। पीत लेश्यावाले जीवोंके पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुस्वर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह सागर प्रमाण है। अठारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका भन्न मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण है । छह माह प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक दो सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। देव.
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