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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
सादि- अणादि-धुव अद्भुवबंधपरूवणा
६७. यो सो सादियबंधो अणादिबंधो धुवबंधो श्रद्ध्रुवबंधो णाम तस्स इमो दुवि० द्दिसो - ओघे० दे० । श्रघे० पंचरणा० चदुदंस० - चंदुसंज० - पंचंतरा० उक्कस्सद्विदिबंधो अणुक्कस्सद्विदिबंधो जहण्णद्विदिबंधो किं सादियबंधी किं प्रणादियबंध किं धुवबंध किं अद्ध्रुवबंधो ? सादिय० अद्ध्रुवबंधो वा । अजहराणहिदिबंधो किं सादिय वा०४१ सादिय० अणादिय० धुव० ऋद्ध्रुव । सेसारणं सव्वपगदी उकस्स ० अणुकस्स० जह० जह० किं सादि०४ ? सादिय - अद्ध्रुवबंधो' । एवं श्रोघभंगो चक्खुर्द ० - भवसि० । वरि भवसिद्धिए धुवबंधो गत्थि । सेसाणं विरयादि याव पाहारगति किं सादि ० ४ १ सादिय - अद्ध्रुव बंधो ।
बन्ध पाँच ज्ञानावरणका अन्तर्मुहूर्त है और सब अजघन्य स्थितिबन्ध है । इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिए। सादि-अनादि ध्रुव अध्रुवबन्धप्ररूपणा
६७. जो सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्ध है, उसका यह निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । श्रघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या श्रनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और ध्रुव है । जघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या श्रध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। शेष सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध, जघन्य स्थितिबन्ध और अजघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है । इसी प्रकार के समान चतुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुव बन्ध नहीं होता । शेष नरकगति से लेकर अनाहारकतक सब मार्गणाओं में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट, स्थितिबन्ध जघन्य स्थितिबन्ध और अजघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अव है ? सादि और अध्रुव है ।
विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी बन्धन्युच्छित्ति और जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है। इसके पहले अनादिकालसे प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है । यतः इन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने अन्तिम स्थितिबन्धके समय प्राप्त होता है, इसलिए इसके पहले अनादिकाल से होनेवाला इनका अजघन्यबन्ध ठहरता है । इसलिए तो यह अनादि है तथा जो जीव उपश्रम श्रेणिपर श्रारोहण कर और सूक्ष्म साम्परायके अन्तमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति कर उपशान्तमोह हो उपशमश्रेणीसे उतरते हुए पुनः इनके बन्धका प्रारम्भ करता है, उसके यह अजघन्य स्थितिबन्ध सादि होता है । ध्रुव और अध्रुव स्पष्ट ही हैं । इस प्रकार उक्त १८ प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुष और अध्रुवके भेदसे चार प्रकार का होता है । इन १८ प्रकृतियोंके शेष उत्कृष्टबन्ध आदि तीन तथा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्टबन्ध श्रादि चार सादि और श्रध्रुष दो ही प्रकारके हैं, क्योंकि उक्त १८ प्रकृतियोंके उत्कृष्टबन्ध श्रादि तीन और शेषके उत्कृष्टबन्ध आदि चारों कादाचित्क होने से अनादि और
१. गो० क० ना० १५३ । पञ्चसं० ।
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