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उक्कस्स-अद्धाच्छेदपरूवणा देवगदि-वेउन्वि--आहार०-वउवि०-आहार०अंगोवं०-देवगदिपाश्रोग्ग०-तित्थयरं उक्क. हिदि० अंतोकोडाकोडी। अंतोमु० आग। [आवाधृ० कम्महि०] कम्मणि । पम्माए सहस्सारभंगो । णवरि देवगदि०४ तित्थयरं च तेउभंगो । देवायुग० अहारस साग० सादि० । पुवकोडितिभागं च आबा। [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । सुक्कलेस्साए आणदभंगो। णवरि देवायु०-देवगदि०४ आहारकायजोगिभंगो।
४४. भवसिद्धिया० मूलोघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो। सम्मादि०-खइगस०-वेदग०-उवसमसम्मा०-सम्मामि०सगपगदीओ अोधिभंगो। सासणे सगपगदीओ उक्क० हिदि. अंतोकोडाकोडी। अंतोमु० आबा। आबाधू० कम्महि. कम्म-] णिसे० । रणवरि तिगिण आयु. मदिअएणाणिभंगो। मिच्छादि० अब्भवसिद्धिभंगो।
४५. सरिण मूलोघं । असएणीसु पंचणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छत्त०सोलसक--णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयगदि-पंचिंदि-वेउव्विय-तेजा-कवेवि०अंगो-हुडसं०-वएण०४-णिरयाणुपु०४-अगुरु०-अप्पसत्थवि०-तसादि०४
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गति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, आहारक आङ्गोपाङ्ग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। पद्मलेश्यावाले जीवोंके अपनी सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि सहस्रार कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि पीत लेश्यावाले जीवोंके समान है। तथा देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक अठारह सागर प्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । शुक्ल लेश्यावाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध
आदि पानत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके देवायु और देवगतिचतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि आहारककाययोगी जीवोंके समान है।
४४. भव्य जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोधके समान है। अभव्य जीवोंके मत्यशानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि
और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अवधिशानियोंके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंके अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। इतनी विशेषता है कि तीन आयुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मत्यशानियोंके समान है। मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अभव्योंके समान है।
४५. संक्षी जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोघके समान है। असंही जीवोंके पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी चतुष्क, अगुरुलघु, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसादि चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र
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