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जहरण- अद्धाच्छेद परूवणा
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५१. तिरिक्खेसु चदुरणं श्रायुगागं वेडव्वियछक्कं च मूलोघं । सेसाणं सव्वपगदी जह० द्विदि० सागरोवमस्स तिरिण [ सत्तभागा] सत्त सत्त भागा चत्तारि सत्तभागा वे सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण उणिया । अंतोमु० आबा० । आबाधू० । पंचिंदियतिरिक्ख ० ३ सव्वपगदीणं णिरयभंगो । श्रयुगाणं मूलोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खापज्जत्तेसु ।
५२. मणुस ० ३ खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं सव्वपगदी जह० द्विदि० सागरोवमसहस्सस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवम० संखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबाधा । [ आबाधू० कम्महि० कम्मणि०] । चदुरणं आयुगाणं मूलोधं । वेडव्वियळकं [ आहार०] आहार० अंगो० तित्थयरं जह० द्विदि० अंतोकोडाकोडीओ | अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मरिण ० ] | मणुसपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो |
५३. देवगदीए देवा-भवण० - वाणवें० रियोघं । जोदिसि याव सव्वट्टत्ति विदियषुढविभंगो । सोधम्मीसाणे आयु० जह० हिदि ० तो ० | अंतोमु० आबा० । स्थितिबन्ध होता रहता है । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर यहाँ नरकगति में और प्रथम नरक में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध कहा है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है, यह पहिले ही कह आये हैं । द्वितीयादि नरकों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध उक्त प्रमाण ही होता है । इसलिए यहाँ सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध तीर्थकर प्रकृतिके समान कहा है ।
५१. तिर्यञ्चों में चार आयु और वैक्रियिक पटकका जघन्य स्थितिबन्ध मूलोघके समान है। शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तीन बढे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बढे सात भाग और दो बटे सात प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है । और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध नारकियोंके समान है । श्रायुओंका जघन्य स्थितिबन्ध मूलोधके समान है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्या कोंके जानना चाहिए ।
५२. मनुष्यत्रिक में क्षपक प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध
के समान है । शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक हजार सागरका पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग, और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्राबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । चार श्रायुओं का जघन्य स्थितिबन्ध मूलोघके समान है। वैक्रियिकषट्क, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, अन्तमुहूर्त प्रमाण बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । मनुष्य पर्यातकों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । ५३. देवगतिमें सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सामान्य नारकियोंके समान है । तथा ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध दूसरी पृथिवीके समान है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और
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