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महाबंधे विदिबंधाहियारे २८२. आदेसेण गैरइएसु सत्तएणं क. भुज-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवडि० जह० एग०, उक्क० बे सम । आयु० अवत्त-अप्पद० जह० अंतो०, उक्कस्सेण छम्मासं देसूणं । एवं सव्वणिरय-सव्वदेव-वेउव्वियमि०-विभंग ।
२८३. तिरिक्वेसु सत्तएणं क. भुज०-अप्प० अोघं । अवहि० जह• एग०, उक्क० चत्तारि सम । आयु अवत्त०-अप्पद० जह• अंतो०, उक्क तिरिण पलिदो० सादिरे । एवं णवुस०-मदि०-सुद०-असंज-किरण०-णील-काउ०-अब्भवसि०मिच्छादि० । णवरि आयु. किरण -णील-काउले णिरयभंगो। सेसाणं मूलोघं ।
कमसे कम अन्तर्मुहर्त और अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर काल लगता है। इसीसे आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। अचक्षुदर्शन और भव्य जीवों में यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इनमें उक्त पदोंका अन्तरकाल अोधके समान कहा है।
२८२. श्रादेशसे नारकियों में सात कौके भुजगार और अल्पतरवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आयुकर्मके अवक्तव्य और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। इसी प्रकार सब नारकी, सब देव, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभङ्गशानी जीवोंके जानना चाहिए ।
२८३. तिर्यञ्चों में सात कौके भुजगार और अल्पतरबन्धका अन्तर ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। आयुकर्मके अवक्तव्य और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवों में आयुकर्मके पदोंका अन्तर सामान्य नारकियोंके समान है। तथा शेष मार्गणाओंमें आयुकर्मके पदोंका अन्तर मलोघके समान है।
विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ नरकमें सतत बनी रहती हैं। अन्यत्र इनका अन्तर्मुहूर्त काल उपलब्ध होता है, इसलिए आयुकर्मकी अपेक्षा दोनों पदोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छह महीना जैसा कि नारकियोंके कह आये हैं उसी प्रकार इन लेश्याओंमें प्राप्त होनेसे इनका अन्तरकाल सामान्य नार समान कहा है। तथा ओघसे आयुकर्मके दो पदोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं,उसी प्रकार यहां कही गई नपुंसकवेदी, मत्यशानी, श्रुताशानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि मार्गणाओं में भी जान लेना चाहिए, क्योंकि नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर प्रमाण होनेसे जिसने पूर्वभवमें पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुबन्ध करके पुनः नरकगतिमें छह महीना कालके शेष रहनेपर आयुबन्ध किया है,उसके आयुकर्मके दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है। इन मार्गणाओं में इन पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है,यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है।
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