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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
वह्निबंधो
३५८. वढिबंधे त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि - समुक्कित्तणा सामित्तं एवं याव अप्पाबहुगे ति ।
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समुत्तिणा
३५६. समुत्तिणदाए दुविधो दिसो ---- ओघेण देण य । तत्थ घे सत्तएां क० अत्थि चत्तारिवढि ० चत्तारिहाणि ० अवद्विद० अवत्तव्वबंधगा य । आयु० for anaisगा य असंखेज्जभागहारिणबंधगा य । एवं आयु० याव अणाहारगति । यथा श्रघेण तथा मणुस ० ३ - पंचिंदिय-तस०२ - पंचमण० - पंचवचि०कायजोगि ओरालियका ० - भि० सुद० ओधि० - मरणपज्ज० -संजद ० - चक्खुर्द ० -चक्खुर्द ० धिदं०-सुकले ०- भवसि ०- सम्मादि० खइग०-उवसम० सरिण - आहारगति ।
वृद्धिबन्ध
३५८. अब वृद्धिबन्धका प्रकरण है । उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं - समुत्कीर्तना और स्वामित्व से लेकर अल्पबहुत्व तक ।
विशेषार्थ - जिसमें छह गुणी हानि - वृद्धिका विचार किया जाता है, उसे वृद्धि अनुयोगद्वार कहते हैं । यहाँ वृद्धि पद उपलक्षण है, इसलिए इस पद से हानिका भी ग्रहण हो जाता है । यहाँ स्थितिबन्धका प्रकरण होनेसे इसका नाम वृद्धिबन्ध पड़ा है। मुख्यरूपसे इसका विचार तेरह अनुयोगद्वारोंके द्वारा किया जाता है । प्रकृत में प्रारम्भके समुत्कीर्तना और स्वमित्व ये दो तथा अन्तिम अल्पबहुत्व इन तीनका नाम निर्देश किया है । सब अनुयोगद्वारों के नाम ये हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, और अल्पबहुत्व ।
समुत्कीर्तना
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३५९. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी चार वृद्धि, चार हानि, श्रवस्थित और अवक्तव्य पद का बन्ध करनेवाले जीव हैं। आयुकर्मके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले और असंख्यात भागहानिपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । इसी प्रकार आयुकर्म की अपेक्षा अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । तथा शेष सात कर्मों की अपेक्षा जिस प्रकार श्रघमें कहा है, उसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिक काययोगी, श्रभिनि बोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चतुदर्शनी, श्रचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संक्षी और आहारक जीवों के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - आठों कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्धका पहले निर्देश कर आये हैं। साथ ही यह भी बतला श्राये हैं कि आयुकर्मका अवक्तव्यबन्ध होनेके बाद अल्पतरबन्ध ही होता है । इस प्रकार इन आठों कर्मोंके स्थितिबन्धके कुल विकल्पोंको देखते हुए इनमें अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि तथा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि तो कथमपि सम्भव नहीं हैं, क्योंकि कुल स्थितिविकल्प असंख्यात ही हैं, इसलिये इनमें ये दो वृद्धि
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