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महाबंधे हिदिसंघाहियारे वणफदि-णिगोदाणं च । पुढवि०-प्राउ-तेउ०-वाउ० तेसिं बादर. बादरवणप्फदिपत्तेय० अहएणं कम्माणं मूलोघं । एवं उक्कस्सं समत्तं ।
१३८. जहएणगे पगदं। तं चेव अहपदं कादव्वं । तस्स दुविधो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सभंगो। आयु० जह अजह• अत्थि बंधगा य अबंधगा य। एवं अोघभंगो पुढवि०-आउ०-तेउवाउ० तेसिं चेव बादर० वणप्फदिपत्तेय-कायजोगि-अोरलियका०-णवुस-कोधादि०४अचक्खु०-भवसि०-आहारग त्ति । जीवोंके जानना चाहिए। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इन चारोंके बादर तथा बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर जीवोंके आठों कर्मोंका भङ्गविचय मूलोधके समान है।
विशेषार्थ-ओघप्ररूपणामें उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव प्रबन्धक होते हैं, कदाचित् नाना जीव अबन्धक होते हैं और एक जीव बन्धक होता है तथा कदा. चित् नाना जीव अबन्धक होते हैं और नाना जीव बन्धक होते हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव बन्धक होते हैं, कदाचित् नाना जीव बन्धक होते हैं और एक जीव अबन्धक होता है और कदाचित् नाना जीव बन्धक होते हैं और नाना जीव अबन्धक होते हैं;यह बतला आये हैं। प्रकृतमें आयुकर्मकी अपेक्षा इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार उत्कृष्ट भङ्गविचय समाप्त हुआ। १३८, अब जघन्य भङ्गविचयका प्रकरण है। यहाँ अर्थपद पूर्वोक्त ही जानना चाहिए। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे श्रोधकी अपेक्षा सात कोका भङ्गविचय उत्कृष्ट के समान है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अनेक जीव बन्धक है और अनेक जीव अबन्धक है। इस प्रकार श्रोधके समान पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इन चारोंके बादर, वनस्पतिकायिक, प्रत्येकशरीर, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यहां ओघसे सात कर्मोका भङ्गविचय उत्कृष्टके समान है । सो इस कथन का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार ओघसे सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्गविचय कह पाये हैं, उस प्रकार यहां जघन्य स्थितिबन्धका कहना चाहिए और जिस प्रकार ओघसे सात कर्मोके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्गविचय कह पाये हैं, उस प्रकार यहां अजघन्य स्थितिबन्धका कहना चाहिए । इसके अनुसार निम्न भङ्ग उपलब्ध होते हैं-कदाचित् सब जीव जघन्य स्थितिके प्रबन्धक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव प्रबन्धक होते हैं और एक जीव बन्धक होता है, कदाचित् बहुत जीव अबन्धक होते हैं और बहुत जीव बन्धक होते हैं। अजघन्यकी अपेक्षा-कदाचित् सब जीव अजघन्य स्थितिके बन्धक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव बन्धक होते हैं, और एक जीव प्रबन्धक होता है तथा कदाचित् बहुत जीव बन्धक होते हैं और बात जीव प्रबन्धक होते हैं। आयकर्मका विचार स्पष्ट है, क्योंकि उसकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक और प्रबन्धक जीव सतत उपलब्ध होते हैं। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई है,उनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है इसलिए उनका कथन ओघके समान कहा है।
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