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जहण्णकालपरूवण
११७ १६६. जोदिसिय याव सव्वहा ति उक्कस्सभंगो। सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियतस०अपज्जत्त-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जताणं च मूलोघं । एवं पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं बादर० वणप्फदिपत्तेय० । णवरि आयु० अोघं । ___२००. पंचिंदिय-तस०२ सत्तएणं क. मूलोघं । आयु० णिरयभंगो। एवं इत्थि०-पुरिस-विभंग०-संजदासंजद०-चक्खुदं०-तेउ०-पम्मले०-सणिण ति ।।
२०१. पंचमण-पंचवचि. सत्तएणं क० जह• जह० एग०, उक्क. अंतो। अज० सव्वद्धा। आयु० उक्कस्सभंगो । कायजोगि-ओरालियका० सत्तएणं क. मणजोगिभंगो। आयु० मूलोघं । वेउब्वियमि०-आहार-आहारमि०-मणपज्जा संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार-सम्मामि० जह• अज० उक्कस्सभंगो । अवगद.
विशेषार्थ-मनुष्योंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिको प्राप्त मनुष्योंकी मुख्यता है और अजघन्य स्थिति बन्धमें शेष सब मनुष्योंकी मुख्यता है, इसलिए यहाँ सात कर्मीकी जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका ओघके समान काल बन जाता है। आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध यथासम्भव सब मनुष्योंकी मुख्यता है, इसलिए यहाँ आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका मूलमें कहा हुआ काल बन जाता है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंकी संख्या संख्यात होनेसे इनमें आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान ही घटित होता है।
१९९. ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, प्रस अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका भङ्ग मूलोघके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक
और इनके बादर तथा वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है।
२००. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, अस और सपर्याप्त जीवोंमें सात कौंका भङ्ग मूलोधके समान है। आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है, इसी प्रकार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गलानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पालेश्यावाले और संशी जीवोंके जानना चाहिए ।
२०१. पाँचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। आयुकर्मका मङ्ग उत्कृष्टके समान है। काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका मन मनोयोगियोंके समान है। आयुकर्मका भङ्ग मूलोधके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी आहारककाययोगी, प्राहारकमिश्रकाययोगी, मनम्पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत. छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सम्यग्मिथ्याडष्टि जीपोंमें आठों कर्मोंकी जपन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। अपगतवेदी
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