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महाबंधे टिदिवंचाहिगारे २५२. सुहुमसंप० सव्वथोवा णाणाव०-दसणाव०-अंतराइ० उक्क द्विदिवं० । यहिदिवं० विसे । णामा-गोदाणं उक्क डिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । वेदणी. उक्क०हिदिवं. विसे० । [यहिदिबं० विसेसाहिो । एवं उक्कस्सं समत्तं ।
२५३. जहएणगे पगदं। सव्वत्थोवा आयु० जहहिदिबं० । यहिदिबं० विसे । मोह० जहहिदिबं. संखे०गु० । यहिदिबं० विसे० । णाणावर०-दसणावरअंतराइ० जहहिदिवं संगु० । यहिदिबं० विसे । णामागोदाणं जहहिदिवं० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । वेदणी. जहहिदिबं० विसे । याहिदिबं०विसे । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका०-पुरिस०-कोधादि०४-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-भवसि०-सएिण-आहारग ति ।
२५४. आदेसेण णेरइएसु उकस्सभंगो। णवरि विदियादि याव सत्तमा त्ति मोह. जह०हिदिवं० विसे० । यहिदिवं० विसे० ।
२५५. तिरिक्खेसु सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-सव्वदेव-सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचिंदिय-तसअपज्ज०-सव्वपंचकायाणं ओरालियमि०-मदि०-सुद०-विभंगअसंजद०-पंचले -अब्भवसि०-मिच्छादि०-असएिण त्ति एदेसि सव्वेसिं णिरयोघं ।
२५२. सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम
और गोत्र कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबना संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। २५३. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शना. वरण और अन्तरायकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थिति
वशेष अधिक है। इससे वेदनीयकर्मको जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसीप्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भन्य, संशी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
२५४. आदेशसे नारकियों में अल्पबष्टुत्वका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीयकर्मका जघन्य स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
२५५. तिर्यञ्चोंमें सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्यात, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, प्रसअपर्याप्त, सब पाँच स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताक्षानी, विभङ्गलानी, असंयत, पाँचलेश्याषाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंक्षी
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