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उक्कस्सकालपरूषणा
११३ १६०. आणद याव अवराजिदा त्ति सत्तएणं कम्माणं ओघं । श्रायु० मणुसिभंगो। एवं मुक्कले०-खइग० ।
१६१. सव्वएइंदिय-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-बाउ-बादरवणप्फदिपत्तेय० अपज्जत्ता तेसिं चेव सव्वसुहुम० सव्ववणप्फदि-णिगोदाणं च सत्तएणं क० उक्क० अणु०
मनुष्यगति मार्गणाके जीव निरन्तर उपलब्ध होते हैं, अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध सर्वदा पाये जानेके कारण इसका काल सर्वदा कहा है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध एक समय तक होता है, इसलिए यदि कोई एक मनुष्य प्रथम समयमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और द्वितीयादि समयोंमें कोई आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं करता,तो मनुष्योंमें श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका एक समय काल उपलब्ध होता है और यदि संख्यात समय तक निरन्तर संख्यात मनुष्य आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते रहते है,तो श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका संख्यात समय काल उपलब्ध होता है। यहाँ आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका इससे अधिक काल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि पर्याप्त मनुष्य ही उत्कृष्ट आयुका बन्ध करते हैं और वे संख्यात होते हैं। यही कारण है कि सामान्य मनुष्योंमें श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि एक बार में एक जीवके श्रायुकर्मका बन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है। तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि निरन्तर इतने काल तक नाना जीव आयुबन्ध कर सकते हैं। इसमें लब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी प्रधानता होनेसे यह काल उपलब्ध होता है। यही कारण है कि मनुष्योंमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यह सामान्य मनुष्योंकी अपेक्षा काल घटित करके बतलाया है। मनुष्योंके शेष भेदों में इस कालको ध्यानमें रखकर कालका विचार कर लेना चाहिए। सर्वार्थसिद्धिके देव संख्यात होते हैं. इसलिए उनमें मनुयिनियोंके समान आठों कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा काल उपलब्ध होता है,यह स्पष्ट ही है।
१९०. श्रानत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है। आयु कर्मका भंग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में काल जानना चाहिए।
विशेषार्थ-इन मार्गणाओंमें लगातार प्रोयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें आयु कर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान कहा है। मनुष्यपर्याप्तकोंके समान न कहकर मनुष्यनियोंके समान कहनेका कारण यह है कि मनुष्य पर्याप्तकोंसे मनुष्यिनियोंकी संख्या तिगुनी होती है, जिससे उत्कृष्ट काल अधिक उपलब्ध होता है।
१६१. सब एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त और इन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध
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