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जहण्ण-फोसणपरूवणा १८५. पंचिंदियतिरिक्ख०४-सव्वमणुस-सव्वदेव-सच्चविगलिंदिय-सव्वपंचिंदियतस-बादरपुढवि०-आउ-तेउ०-चाउ०-पज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव पज्जत्तापज्जत्त० पंचमण-पंचवचिं०-इत्थि०-पुरिस-विभंग०-श्राभि०-सुद०-श्रोधि०-संजदासंजद-चक्खुदं०-अोधिदं०-तेउ०-पम्मले०-सुक्कले०--सम्मादि०-खइग०--वेदगस०-उवसमस०-सणिण त्ति एदेसि सव्वेसिं सत्तण्णं क० जह० खेत्त० । अज० अप्पप्पणो अणुक्कस्सफोसणभंगो । णवरि आयु० एसिं जहहिदिवं० खुद्दाभवग्गहणं तेसिं जह. खेत्तभंगो । अज० अणुभंगो । सेसाणं उक्कस्सभंगो । वरि जोदिसियादिउवरिमदेवाणं सत्तएणं क० जह० सव्वदेवाणं आयु० जहएणयस्स च विहारवद फोसणं कादव्वं ।
विशेषार्थ-जो असंशी जोव नरकमें उत्पन्न होते हैं, उन्हींके जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है। इसीसे नरकमें जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। कारण कि ये प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होते हैं,अतः इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । इनके सिवा शेष सब नारकियोंके अजघन्य स्थितिबन्ध होता है। यही कारण है कि अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंके समान कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है। यह सामान्य नारकियोंके स्पर्शनका विचार है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंके स्पर्शनका विचार कर लेना चाहिए । मात्र प्रत्येक पृथिवीमें अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकियोंका स्पर्शन अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान प्रत्येक पृथिवीके स्पर्शनके अनुसार कथन करना चाहिए ।
१८५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च चतुष्क, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब बस, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादरजलकायिकपर्याप्त, बादरअग्निकायिकपर्याप्त, बादरवायुकायिक पर्याप्त, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इन्हींके पर्याप्त-अपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गशानी,
आभिनियोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले,, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, बेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संशी इन सब जीवों में सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने अनुत्कृष्ट स्पर्शनके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें जिनके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्रक भवग्रहण प्रमाण होता है, उनके जघन्य स्थितिकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है। शेष सब जीवोंके आयुकर्मकी अपेक्षा स्पर्शन उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर ऊपरके देवोंके सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका और सब देवोंके आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका विहारवत् स्वस्थान पदके समान स्पर्शन जानना चाहिए।
विशेषार्थ-भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सात कौका जघन्य स्थितिबन्ध उत्पत्तिके प्रथम और द्वितीय समयमें उपलब्ध होता है, क्योंकि इनमें असंही जीव मरकर उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन दो प्रकारके देवोंको छोड़कर ज्योतिषियोंसे लेकर शेष सब देवोंके सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध और सब देवोंके आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध विहार
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