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उक्कस्सपरिमाणपरूवणा
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१४७, मणुसपज्जत - मणुसिणीस आणद याव सव्वह त्ति आहार - आहारमि०अव गदवे ० - मरणपज्जव० - संजद ० - सामाइ० - छेदो ० - परिहार० - मुहुमसंप ० -मुक्कले ०. खइग० जह० अजह० उक्कस्सभंगो। सेसाणं सव्वेसिं सव्वपगदीणं जह० द्विदि ० के ० १ असं० भागो । अज० हिदि० के० १ असंखेज्जा भागा । एवं भागाभागा समत्तं ।
परिमाणपरूवणा
१४८. परिमाणं दुविधं, जहणणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सगे पगदं । दुविधं — घेण आदेसेण य । तत्थ घेण अरणं कम्माणं उक्क० द्विदिबंध • केवडिया ? असंखेज्जा । अणुक्क० द्विदि० केव० १ अता । एवं ओघ भंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालियका० - ओरालियमि० कम्मइ० - वुंस० - कोधादि ० ४-मदि०सुद० - असंज० - अचक्खु०- किरण० - पील० - काउले ० - भवसि ० - अब्भवसि० -मिच्छादि०सरि ० - आहार० - अरणाहारग ति ।
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श्रसंख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यात बहुभाग प्रमाण कहे हैं ।
१४७. मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका भागाभाग उत्कृष्टके समान है। शेष सब मार्गणाओं में जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । श्रजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं ।
विशेषार्थ - यहां जितनी मार्गणाएँ कहीं है, उनमेंसे किन्हींकी संख्या संख्यात है, किन्हींकी संख्यात है और किन्हींकी अनन्त है । जिन मार्गणाओंका भागाभाग उत्कृष्टके समान कहा है, उनमें बहुतों की संख्या संख्यात है और कुछकी श्रसंख्यात, इत्यादि सब बातोंको ध्यान में रखकर भागाभागका विचार कर लेना चाहिए ।
इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ । परिमाणप्ररूपणा
१४८. परिमाण दो प्रकारका है-ज - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे श्रोघकी अपेक्षा श्राठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? श्रसंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार श्रधके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, श्रदारिक मिश्र काययोगी, कार्मण काययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, श्रचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेण्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, श्रसंज्ञी, श्राहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीको देखते हुए स्पष्ट ज्ञात होता है कि से और इन मार्गणाओं में उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात से अधिक नहीं हो
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