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उक्कस्सअंतरपरूवणा अणुक्क पत्थि अंतरं । आयु ओरालियमि० उक्क अणु० बादरएइंदियअपज्जत्तभंगो । आहारमिस्स० आयु० पत्थि अंतरं ।
१०६. इत्थि-पुरिस-णवुस. सत्तएणं कम्माणं उक्क० जह• अंतो०, उक्क. पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं अणंतकालमसंखे० । अणु० ओघं । आयु० तिएणं वि उक्क० जह० पुव्वकोडिदसवस्ससहस्साणि समयू। उक्क० अप्पप्पणो कायहिदी । अणु० जह' अंतो०, उक्कस्सेण पणवएणं पलिदो० सादि० तेत्तीसंसादि । अवगद० सत्तएणं क० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० जह• उक्क० अंतो। और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरका निर्देश बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। तथा आहारकमिश्रकाययोगमें आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-जिस जीवके प्रारम्भमें सात कोका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर बीचमें एक समयके लिए उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उसके पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगमेंसे कोई एक योगमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है और उपशम श्रेणिपर चढ़कर और पुनः उतरकर विवक्षित योगमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है उसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर उपलब्ध होता है। इन योगोंमेंसे प्रत्येकका काल इतना अल्प है जिससे इनमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध या दो बार उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट आयुकर्मका बन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरका तथा आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरका निषेध किया है। काययोगमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल सम्भव नहीं है,यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि जो पिछली बार काययोगमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर चुका है, उसके दूसरी पर्यायमें पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करने तक बीच में अनेक बार योगपरिवर्तन होकर मन, वचन और काय तीनों योग हो लेते हैं। हाँ, औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण होनेसे सामान्यसे काययोगमें साधिक बाईस हजार वर्ष प्रमाण तथा औदारिक काययोगमें साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण आयुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल अवश्य बन जाता है। शेष कथन सुगम है।
१०६. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर तीनों वेदों में क्रमसे सौ पल्य पृथक्त्व सौ सागरपृथक्त्व' और असंख्यात पुनल परिवर्तनों में लगनेवाले कालके बराबर अनन्त काल है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल श्रोधके समान है। तीनों ही वेदोंमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम एक पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर स्त्रीवेदमें साधिक पचपन पल्य तथा शेष दो वेदों में साधिक तेतीस सागर है। अपगतवेदमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
पाथे-तीनो घेदोकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्यपृथक्त्व, सौ सागरपृथक्स्व और अनन्त काल है। इसीसे यहाँ सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम उक्त
1.मूखपतौ जह• मह मंतो इति पाठ। १. ध० पु० ७,पृ० १५३ । ३. ध० पु. ७,३० १५६। १. ध० पु. ७,१० १५७। ५. देखो ध० पु० ०,१० १५८ ।
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