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महाबंधे विदिबंधाहियारे ५७. श्रादेसण णिरयगईए णेरइएमु उक्त कम्म हिदि कस्स ? अण्णद. असएिणपंचिंदि० सागारजागा. सव्वविसुद्धस्स पढम-विदियस० वट्टमाण । आयु० जह• हिदि० कस्स ? अण्ण• मिच्छादि० तप्पायो जह० सं० जह आबा० जहहिदि० वट्टः । एवं पढमाए मणुसअपज्जत्त-देवा-भवरण-वाणवें । विदियाए याव सत्तमाए सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि० कस्स ? अण्ण. असंजद० सव्वविसुद्धस्स । आयु. पढमपुढविभंगो। एवं जोदिसिय याच सव्वह त्ति । णवरि अणुद्दिस याव सव्वह त्ति आयुग० सम्मादिहि । होती है वहाँ होता है। इस हिसाब से छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्प रायके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है और मोहनीयका क्षपक अनिवृत्तिकरणमें; क्यों कि सूक्ष्म साम्परायमें मोहनीय कर्मका बन्ध नहीं होता। तथा आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सब प्रकारके मनुष्य और तिथंचोंके होता है, क्योंकि इन सबके आसंक्षेपाद्धाकाल प्रमाण आयुकर्मके बन्ध होनेमें कोई बाधा नहीं पाती। यहाँ अन्य वे मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें क्षपक श्रेणीकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है । मात्र इन सब मार्गणाओंमें श्रोधके समान आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध नहीं प्राप्त होता, क्यों कि इनमेंसे आभिनिबोधिक आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें मिथ्यात्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है और शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्वकी प्राप्ति भी हो गई,तो वहाँ परिणामोंकी इतनी उज्वलता रहती है जिससे वहाँ श्रायुका आसंक्षेपाद्धा काल प्रमाण बन्ध नहीं होता। यही कारण है कि इन मार्गणाओंमें आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है. इस बातका अलगसे निर्देश किया है।
५७. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो असंक्षी पञ्चेन्द्रियचर जीव साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है और प्रथम,द्वितीय समयमें स्थित है वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है,। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो मिथ्यादृष्टि तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है,वह आयु फर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव. भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिये। दूसरी प्रथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि सर्व विशुद्ध परिणामवाला जीव सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पहली पृथिवीके समान है। इसी प्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यग्दृष्टि जीव आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है।
विशेषार्थ-नरको असंक्षी जीव भी मरकर उत्पन्न होता है और उसके अपर्याप्त अवस्थामें असंशीके योग्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे सामान्यसे नरकमे असक्षा, पञ्चेन्द्रिय चर जीवको सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। प्रथम नरक, देव, भवनवासी और व्यन्तर देव इन मार्गणाओं में भी असंशी जीव मरकर उत्पन्न होता है, इसलिये यहाँ सामान्य नरकके समान प्ररूपणा की है। द्वितीयादि नरकोंमें मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिके सात कौका स्थितिबन्ध न्यून होता है। शेष रहे देवोंमें भी ऐसा ही जानना
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