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सादि-अणादि-धुव-अद्धवबंधपरूवणा तदो ऊणियं बंधदि त्ति अणुक्कस्सबंधो । एवं सत्तएणं कम्माणं । एवं अणाहारग त्ति णेदव्वं ।
जहण्ण-अजहण्णबंधपरूवणा ४१. यो सो जहएणबंधो अजहएणबंधो णाम तस्स इमो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयस्स हिदिबंधो किं जहणण अजहएण• ? जहएणबंधो वा अजहएणबंधो वा। सव्वजहरिणयं द्विदि बंधमाणस्स जहएणवंधो । तदो उवरि बंधमाणस्स अजहएणबंधो । एवं सत्तएणं कम्माणं । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं । णिरएमु आयुग०९ अजहएणवंधो । एवं सव्वअपज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं अजहएणबंधो। केइ अप्पप्पणो [ हिदि पडुच्च परूवेति । एवं ] याव अणाहारग त्ति ओघं।
सादि-अणादि-धुव-अधुवबंधपरूवणा ४२. यो सो सादियबंधो अणादियबंधो धुवबंधो अर्धवबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्मासं उकस्स० अणुक्कस्स० उत्कृष्टबन्ध होता है और उससे न्यून स्थितिको बाँधता है,इसलिये अनुत्कृष्टबन्ध होता है। इसी प्रकार सात कौंका कथन करना चाहिये। इस एकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सबसे उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी उत्कृष्टबन्ध संशा है । जैसे, ज्ञानावरणका तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध होने पर अन्तिम निषेककी उत्कृष्टस्थितिबन्ध संज्ञा है और इससे न्यून स्थितिबन्ध होने पर वह अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहलाता है। शेष विचार सर्वबन्ध और नोसर्वबन्धके समान जानना चाहिये ।
जघन्य-अजघन्यबन्धप्ररूपणा ४१. जो जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध है,उसका यह निर्देश है-ओघ और आदेश । ओघसे शानावरणीयके स्थितिबन्धका क्या जघन्यबन्ध होता है या अजघन्यबन्ध होता है ? जघन्यबन्ध भी होता है और अजघन्य बन्ध भी होता है। सबसे जघन्य स्थितिको वाँधनेवालेके जघन्य बन्ध होता है और इससे अधिक स्थितिको वाँधनेवालेके अजघन्य बन्ध होता है। इसी प्रकार सात कोका कथन करना चाहिये। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नारकियोंमें आयुकर्मका अजघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तकोंके सात कर्मोंका अजघन्यबन्ध होता है। कितने ही प्राचार्य अपने-अपने स्थितिबन्धकी अपेक्षा जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्धका कथन करते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ओघको ध्यानमें रख कर कथन करना चाहिए।
__ सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवबन्धप्ररूपणा ४२. जो सादिबन्ध अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्ध है, उसका यह निर्देश हैश्रोध और आदेश। उनमें से ओघसे सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध
१. मूलप्रतौ श्रायुग० णोसव्वबंधो इति पाठः । २. मूलप्रतौ कम्माणं णोसव्वबंधो इति पाठः । ३. मूलप्रतौ अप्पप्पणो...'याव इति पाठः।
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