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महा बंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
जहणबंध किं सादि० अणादिय० धुव० अद्ध्रुव ० १ सादिय अद्ध्रुवबंधो । अजहबंध किं सादि० ४ १ सादियबंधो वा अरणादियबंधो वा धुवबंधो वा अद्ध्रुवबंधो वा । युगस्स चंत्तारि विसा- [ दिय अद्ध्रुवबंधो। एवं अ ] चक्खुर्द ०भवसि० । णवरि भवसि ० धुवं णत्थि । एवं सेसारणं याव अणाहारग त्ति घेण साधिदू दव्वं ।
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सामित्त परूवणा
४३. सामित्तं दुविधं, जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्से पगदं । दुविधो गिद्देसोऔर जघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या ध्रुव है ? सादि है और अध्रुव है। अजघन्यस्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या है ? सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अध्रुव है । आयुकर्मके चारों ही सादि र ध्रुव होते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक शेष सब मार्गणाओं में सादिस्थितिबन्ध आदि श्रोघसे साध कर जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - कर्मका जो बन्ध रुककर पुनः होता है, वह सादिबन्ध कहलाता है और arsayoछत्तिके पूर्व तक अनादि कालसे जिसका बन्ध होता आ रहा है, वह अनादिबन्धं कहलाता है । ध्रुवबन्ध अन्योंके और अध्रुवबन्ध भव्योंके होता है। ये चारों ही उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार भेदों में घटित करने पर सोलह प्रकारके होते हैं। आगे आठों कर्मोंका आश्रय कर इसी विषयका खुलासा करते हैं - श्रायुके विना ज्ञानावरण आदि सात कर्मोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कादाचित्क होते हैं तथा जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिये ये तीनों सादि और अबके भेदसे दो-दो प्रकार के होते हैं; किन्तु इस तरह अजघन्य स्थितिबन्ध कादाचित्क नहीं होता, क्योंकि जघन्य स्थितिबन्धके प्राप्त होनेके पूर्वतक अनादि कालसे जितना भी स्थितिबन्ध होता है, वह सब जघन्य कहलाता है । तथा उपश्रम श्रेणिमें उक्त सात कर्मोंकी वन्धव्युच्छित्ति होने पर पुनः उनका अजघन्य स्थितिबन्ध होने लगता है, इसलिए जघन्य स्थितिबन्धमें सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प बन जाते हैं । श्रयुकर्ममें उत्कृष्ट आदि चारों विकल्प सादि और अध्रुव दो ही प्रकार के हैं - यह स्पष्ट ही है, क्योंकि आयुकर्मका सब जीवोंके कादाचित्क बन्ध होता है । अचक्षुदर्शन और भव्य मार्गणा एक तो कादाचित्क नहीं हैं और दूसरे ये क्रमसे क्षीणमोह और प्रयोगिकेवली होने तक रहती हैं; इसलिये इनमें सादि आदि प्ररूपणा पूर्ववत् बन जाती है, इसलिये इन मार्गणाओं में उक्त प्ररूपणा पूर्ववत् कही है। केवल भव्य मार्गणा में ध्रुवविकल्प नहीं होता । कारण स्पष्ट है। शेष सब मार्गणाओं में ये उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि चारों सादि और अध्रुव ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि अन्य सब मार्गणाएँ यथासम्भव बदलती रहती हैं या सादि हैं, इसलिए उनमें अनादि और ध्रुव ये विकल्प नहीं बनते । यद्यपि अभव्य मार्गणा ध्रुव है, फिर भी उसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदिके अनादि और ध्रुव न होनेसे सादि और ध्रुव ये दो ही विकल्प घटित होते हैं ।
स्वामित्व प्ररूपणा
४३, स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश २. मूलप्रतौ चत्तारि वि सो...... 'चक्खुर्द इति पाठः ।
१. गो० क०, गा० १५२ ।
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