Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं
२३
णवणोकसायाणमुव समसेढिम्हि अंतरकरणं काऊण सव्वोवसमे कदे अवट्ठिदकालो अंतोमुत्तमेत्तो लब्भदि विदियट्टिदीए डिदणिसेगाणमवट्ठिदाए गलणाभवादो सो किण्ण दि १ ण, घडियाजलं व कम्मक्खंधडिदिसमएस पडिसमयं गलमासु कम्महिदीए मावविरोहादो । णिसेगेहि अविट्ठदत्तं जडवसहाइरियो णेच्छदित्ति कुदो णव्व ? ? सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमवट्ठिदस्स अंतोमृत्तं मोत्तूण उकस्टेण एगसमयपरूवणादो * अणंताणुबंधिचउक्कस्स अवत्तव्यं जहरणुक्कस्से एगसमो ।
समाधान —— क्योंकि वहाँपर स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका बन्धकाल बहुत पाया जाता है ।
शंका . उपशमश्रेणी में अन्तरकरण करके सर्वोपशम कर लेनेपर बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवस्थितकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँपर द्वितीय स्थितिमें स्थित निषेक अवस्थित रहते हैं उनका गलन नहीं होता है, अतः इस अवस्थित कालका ग्रहण क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि वहाँपर घटिकायन्त्रके जलके समान कर्मस्कन्धकी स्थिति के समय प्रत्येक समय में गलते रहते हैं, अतः वहाँपर कर्मस्थितिका अवस्थितपना माननेमें विरोध आता है । शंका- यतिवृषभ आचार्यने निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितपनेको स्वीकार नहीं किया है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- चूँकि यतिवृषभ आचार्यने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका उत्कृष्ट अवस्थितकाल अन्तर्मुहूर्त न कहकर एक समय कहा है। इससे मालूम पड़ता है कि यतिवृषभ आचार्यको निषेकों की अपेक्षा अवस्थितकाल इष्ट नहीं है ।
विशेषार्थ -- बात यह है कि जब कोई जीव बारह कषाय और नौ नोकषायों का उपशम कर लेता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंके सब निषेक अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित रहते हैं उनमें उत्कर्षषण, आदि कुछ भी नहीं होता । इसपर शंकाकार कहता है कि अवस्थित विभक्तिका यह काल क्यों नहीं लिया जाता है । इसका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि यद्यपि उक्त प्रकृतियोंके निषेक अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित रहते हैं यह ठीक है फिर भी जिस प्रकार घटिकायन्त्रका जल एक एक बूँदरूपसे प्रति समय घटता जाता है उसी प्रकार उनकी स्थिति भी प्रति समय एक एक समय घटती जाती है, क्योंकि अन्तरकरण करनेके समय उनकी जितनी स्थिति रहती है अन्तरकरण की समाप्ति के समय वह अन्तर्मुहूर्त कम हो जाती है, अतः उपशमश्रेणिमें अवस्थित विभक्ति नहीं प्राप्त होती । इसपर फिर शंकाकार कहता है कि स्थिति भले ही घटती जाओ पर निषेक तो एक समान बने रहते हैं, अतः निषेकोंकी अपेक्षा यहाँ अवस्थितविभक्ति बन जायगी । इसका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यतिवृषभ आचार्यने निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितविभक्तिको नहीं स्वीकार किया है। इसका प्रमाण यह है कि यदि उन्होंने निषेककी अपेक्षा अवस्थितपनेको स्वीकार किया होता तो वे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिके उत्कृष्ट अवस्थितकालको एक समयप्रमाण न कहकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहते, क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उनका भी उपशमभाव देखा जाता है ।
* अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
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