Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
१७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ २६०. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखेलमागवड्डिअवढि० ओघं। असंखेजभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसू. णाणि । दो वड्डी दो हाणी० जहण्णुक० एगस० । णवरि अणंताणु०चउक्क० संखेन्जभागहाणि-असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्वाणमोघं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघमंगो। णवरि असंखेजभागहाणी० जह• एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वपोरइयाणं । णवरि सगढिदी देसूणा ।
है। इसलिये स्त्रीवेद या पुरुषवेदका जितना स्थितिसत्त्व है उससे संख्यातवें भाग अधिक स्थिति वाले कषायका बन्ध कराकर बन्धावलीके पश्चात् खीवेद या पुरुषवेदमें संक्रान्त होने पर उक्त दोनों वेदोंकी संख्यातभागवृद्धिका काल एक समय ही प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चारों वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्य ये सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें ही होते हैं, अतः इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा इनकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि जब अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिकी उद्वेलना हो जाने पर इनकी प्रथम स्थिति एक समय अधिक जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण शेष रहती है तब इनकी असंख्यातभागहानि एक समय तक देखी जाती है । इनकी उत्कृष्ट हानिका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है सो मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालका खुलासा जिस प्रकार पहले किया है उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है । यह ओघ प्ररूपणा मूलमें गिनाई गई त्रस आदि कुछ अन्य मार्गणाओंमें भी अविकल बन जाती है, अतः उनके कथनको अोधके समान कहा है। किन्तु नपुंसकवेदमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल नरकमें ही सम्भव है, अतः यहाँ असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल ओघके समान न जानकर कुछ कम तेतीस सागर जानना चाहिये। इससे नपुंसकोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल भी कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है अतः उसका निवारण करनेके लिये इनकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। नपुंसकवेदकी उदयव्युच्छित्ति नौंवे गुणस्थानमें ही हो जाती है और नौवे गुणस्थानमें लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल नहीं प्राप्त होता, वह तो दसवें गुणस्थानमें प्राप्त होता है । इसके पहले तो अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यातभागहानिका एक ही समय प्राप्त होता है, अतः नपुंसकोंके लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही समझना चाहिये। तथा यद्यपि संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है सो एक समय संक्लेशक्षयसे प्राप्त होता है और दूसरा समय एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियादिकमें और द्वीन्द्रियादिकके पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर प्राप्त होता है। पर इस दूसरे समयमें जीव अनाहारक रहता है। इसलिये आहारकोंके संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय समझना चाहिये।
६२६० आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका काल ओघके समान है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । दो वृद्धि और दो हानियों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। किन्तु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.