Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
अ - अत्तव्वाणमोघं । सुक्कले छब्वीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी ० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो ० सादिरेयाणि । तिष्णिहाणी० ओघं । सम्मत्त सम्मा मि० चत्तारिखड्डि- चत्तारिहाणि अवत्तन्त्र - अवद्वाणाणि ओघं । णवरि असंखेज्ज मागहाणी० उक्क० तेत्तीस सागरो० सादिरेयाणि ।
$ ३१२. भवियाणुवादेण अभव० छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-दोहाणि-अवड्डाणाणमोघं । णवरि संखेज्जभागहाणी • जहण्णुक्क० एस० । असंखेज्जभागहाणी ० जह० एगस ०, उक्क० एकत्तीस सागरो० सादिरेयाणि ।
$ ३१३. सम्मत्ताणुवादेण सम्मादि० आभिणि०मंगो । वेदग० मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि० असंखेज्जभागहाणी ० जह० अंतोमु०, उक्क० छावट्टिसागरो० देसूणाणि ।
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चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका काल ओघके समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागद्दानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीस सागर है। तीन हानियोंका काल ओघ के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, चार हानि, अवक्तव्य और अवस्थितका काल ओघ के समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है ।
विशेषार्थ - यद्यपि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंका उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है तथापि इनमें सम्यग्दृष्टियों के ही २६ प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि निरन्तर बन सकती है । अब यदि सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा से इन लेश्याओं में कालका विचार करते हैं तो वह क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर प्राप्त होता है, इसलिये इनमें उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका उक्त प्रमाण काल कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । पीतलेश्याका उत्कृष्ट काल ढाई सागर और पद्मलेश्याका साधिक अठारह सागर है, इसलिये इनमें २८ प्रकृतियों की असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, इसलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है ।
६ ३१२ भव्य मार्गंणाके अनुवाद से अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियों की तीन वृद्धि, दो हानि और अवस्थानका काल ओघ के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्या भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल. एक समय है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है ।
विशेषार्थ — मिध्यादृष्टि जीवके अधिक काल तक जाती है । अब यदि कोई मिध्यादृष्टि जीव नौवें ग्रैवेयक में भी कुछ काल तक उसके असंख्यात भागहानि सम्भव है। भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है ।
असंख्यात भागहानि नौवें ग्रैवेयक में पाई उत्पन्न होता है तो पूर्व पर्याय में अन्त में यही कारण है कि अभव्यों के असंख्यात -
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§ ३१३ सम्यक्त्वमार्गणा के अनुवाद से सम्यग्दृष्टियों का भंग आभिनिबोधिकज्ञानियों के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछकम छयासठ सागर है । संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि
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