Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ गुण पडि विरोहाभावादो। एवं पि संखेजभागवड्डिविहत्तिए हिंतो संखे०गुण वड्डिविहत्तिया संखे०गुणा । कुदो ? एगजादीदो विणिग्गयजीवाणंजादिवसेण संचिदजीवपडिभागेण विहंजिदूण गमणुवलंभादो । तंजहा-बीइंदिएहितो विणिग्गंतूण सण्णिपंचिंदिएसु उपजमाणा सव्वत्थोवा । असण्णिपंचिंदिएसु उप्पञ्जमाणा असंखेज्जगुणा । चउरिदिएसु उप्पजमाणा विसेसाहिया । तीइंदिएसु उप्पजसाणा विसे०। एइंदिएसु उप्पजमाणा असंखेज्जगुणा । एवं तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदिय-सण्णिपंचिंदिय-एइंदियाणं च वत्तव्वं । तत्थ वीइंदियाणं तीइंदिए उप्पण्णाणं संखे भागवड्डी चेव, पणुवीससागरोवमट्टिदीए सह तीइंदिएसु उप्पण्णाणं पि अपज्जत्तकाले पंचाससागरोवममेत्तहिदिवंधाभावादो। ण च जहण्णहिदीए सह तीइंदिएसुप्पण्णबीइंदियाणं पि संखेजगुणवड्डी अत्थि, पलिदोवमस्स संखे भागेणूणपणुवीससागरोवमेहिंतो तीइंदिएसु वडिदपणुवीससागरोवमाणं पलिदो०संखेभागेणूणाणं देसूणत्तुवलंभादो। तम्हा तीइंदिएसुप्पण्णवीइंदियाणं संखे भागवड्डी चेव । चउरिदिएसु असण्णिपंचिंदिएसु सण्णिपंचिंदिएसु च उप्पण्णबीइंदियाणं संखे०गुणवड्डी चेव । तीइंदियाणं चउरिदिएसुप्पण्णाणं संखे भागवड्डी असण्णिपंचिंदिएसु सण्णिपंचिंदिएसु च उप्पण्णाणं संखे०गुणवड्डी । असण्णिपंचिंदियाणं सण्णीसुप्पण्णाणं नहीं आता है।
- शंका—ऐसा रहते हुए भी संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि जातिवशसे संचित जीवराशिरूप प्रतिभागसे विभक्त करनेपर जितना प्रमाण आवे उतने जीव एक जाति से निकलकर दूसरी जातिमें जाते हुए पाये जाते हैं । खुलासा इस प्रकार है-द्वीन्द्रियोंमेंसे निकलकर संज्ञो पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव सबसे थोड़े हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। तीनइन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार तीनइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंही पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवोंका कथन करना चाहिये। उनमें जो द्वीन्द्रिय जीव तीनइन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके संख्योतभागवृद्धि ही पाई जाती है, क्योंकि पच्चीस सागर स्थितिके साथ तीनइन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके भी अपर्याप्तकालमें पचास सागर स्थितिबन्ध नहीं होता। और जो द्वीन्द्रिय जीव जघन्य स्थितिके साथ तीन इन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके भी संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती है, क्योंकि पल्यके संख्यातवें भागकम पच्चीस सागरसे तीन इन्द्रियोंमें बढ़ाई गई पल्यके संख्यातवें भागकम पच्चीस सागर स्थिति संख्यातगुणी न होकर कुछ कम संख्यातगुणी होती है। इसलिये जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धि ही होती है । तथा जो द्वीन्द्रियजीव चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि ही होती है । तथा जो तीनइन्द्रिय जीव चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धि और जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय
और संज्ञी पश्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि होती है। तथा जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि होती है। इस प्रकार
१. ता० पूतौ पेक्खिदूण [ कथं ] संखेज गुणत्तं इति पाठः ।
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