Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ वियप्पो लब्भदि। सम्मत्तधुवट्ठिदीए उवरिं समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते गहिदे सम्मत्तस्स अवद्विदविहत्तिदंसणादो। पुणो एदं धुवहिदिमस्सिदृण अण्णो अवडिदवियप्पो ण लब्भदि । पुव्वद्विदीदो समयुत्तरं मिच्छत्तहिदि बंधिदूण सम्मत्ते गहिदे पढमो असंखेञभागवड्डिवियप्पो होदि । दुसमयुत्तरं बंधिदूण सम्मत्ते गहिदे विदिओ असंखेभागवड्डिवियप्पो । तिसमयुत्तरं बंधिदण सम्मत्ते गहिदे तदिओ असंखे०भागवड्डिवियप्पो। एवं चदुसमयुतरादिकमेण असंखे०भागवड्डिवियप्पा वत्तव्वा जाव णिरुद्ध हिदिं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ता हिदिवियप्पा वड्डिदा ति । एवं पढमअवहिदविहत्तिपाओग्गहिदिमस्सिदण असंखे० भागवडिपाओग्गदिदीणं. परूवणा कदा। एवं संखेजसागरोवममेत्तअवविदपाओग्गद्विदीओ अस्सिदण पुध असंखे०भागवड्डिपाओग्गद्विदीणं परूवणा कायव्वा । जम्हा अवट्टिदविहत्तिविसयादो असंखे०भागवड्डिविसओ असंखे गुणो तम्हा अवट्ठिदविहत्तिएहितो असंखे०भागवड्डिविहत्तिया असंखेजगुणा ।
* असंखेजगुणवडिकम्मंसिया असंखेजगुणा ।
६५७४. कुदो पलिदो असंखे०भागमेत्तकालसंचिदत्तादो। तं जहा–मिच्छत्तधुवहिदिसंतकम्मे जहण्णपरित्तासंखेन्जेण भागे हिदे तत्थ भागलद्धहिदिसंतकम्ममादिं कादण समऊणादिकमेण हेट्ठा ओदारेदव्वं जाव सव्वजहण्णायामचरिमुव्वेल्लणएक स्थितिसत्कर्मका आश्रय लेकर एक स्थितिविकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिके ऊपर एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिसत्कर्मवाले जीवके वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्ति देखी जाती है। पुनः इस ध्रुवस्थितिका आश्रय लेकर अन्य अवस्थितविकल्प नहीं प्राप्त होता है। तथा पूर्वस्थितिसे एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको बांध कर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवृद्धिका पहला विकल्प होता है। दो समय अधिक बांधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवृद्धिका दूसरा विकल्प होता है। तीन समय अधिक बांधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवृद्धिका तीसरा विकल्प होता है। इसप्रकार विवक्षित स्थितिको जघन्य परितासंख्यातसे खण्डित करने पर जो एक खण्डप्रमाण स्थितिविकल्प आते हैं उतने विकल्पोंकी वृद्धि होने तक चार समय अधिक आदिके क्रमसे असंख्यातभागवृद्धिके विकल्प कहने चाहिये । इस प्रकार प्रथम अवस्थितविक्तिके योग्य स्थितिका आश्रय लेकर असंख्यातभागवृद्धिके योग्य स्थितियोंका कथन किया। इसीप्रकार संख्यात सागरप्रमाण अवस्थितविभक्तियोंके योग्य स्थितियोंका आश्रय लेकर अलग अलग असंख्यातभागवृद्धियोंके योग्य स्थितियोंका कथन करना चाहिये। चूंकि अवस्थितविभक्तिके विषयसे असंख्यातभागबृद्धिका विषय असंख्यातगुणा है, इसलिये अवस्थितविभक्तिवालोंसे असंख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
* असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
६५७४. क्योंकि उनका संचय पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा होता है। खुलासा इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसत्कर्ममें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म लब्ध आवे उससे लेकर एक समय कम आदि क्रमसे
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