Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 322
________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं ३०१ तत्थ संचिदजीवाणं पि तेण सरूवेण अवहाणादो च । एगसमयम्हि जे मिच्छत्तमुवगया सम्मादिहिणो तेसिमसंखेजदिभागो चेव वेदगसम्मत्तं पडिवजदि । तेसिं पि असंखे०भागो असंखे०गुणवडीए उवसमसम्मत्तं पडिवजदि। सेसा असंखेजभागा सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय णिस्संतकम्मिया होंति त्ति एसो भावत्थो। एवं कथं णव्वदे ? पंचहि पयारेहि सम्मत्तं पडिवजमाणजीवेहितो अवत्तव्यविहत्तिया असंखेजगुणा ति सुत्तादो णव्वदे। ण च अवत्तव्यविहत्तिएसु अणादियमिच्छादिट्ठीणं पहाणत्तं, तेसिमट्टत्तरसयपरिमाणत्तादो। एदं कुदो णव्वदे ? णिचणिगोदेहिंतो चउगइणिगोदेसु पविसंताणमणादियमिच्छादिट्ठीणं सम्मत्तं पडिवजमाणाणं चउगइणिगोदेहितो सिज्झमाणाणं च पमाणमुक्कस्सेण अट्टत्तरसदमिदि परमगुरूवदेसादो णव्वदे। तेण सादियमिच्छादिद्विणो तत्थ पहाणा त्ति सिद्धं । ते च एगसमएण मिच्छत्तं गच्छमाणजीवेहिंतो विसेसहीणा, आयाणुसारिवयाभावे सादियमिच्छादिहीणं वोच्छेदप्पसंगादो। अवत्तव्वं कुणमाणजीवाणं कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो। एदं पमाणं आवलि० असंखे०भागमेत्तसव्वोवक्कमणकंडयाणं जहण्णेण एगसमयमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तंतराणं परविदं, एवं संचिदत्तादो। अवत्तव्वविहत्तिया असंखेजगुणा त्ति किण्ण वुच्चदे ? ण सम्मत्तं पडिवजमाणाणं सव्वेसि पि एदस्स हुए जीवोंका भी अवस्थान उसी रूप है। ६५८१. एक समयमें जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्रात हुए हैं उनका असंख्यातवां भाग ही वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है। तथा उनका भी असंख्यातवाँ भाग असंख्यात वद्धिके साथ उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है। तथा शेष अप्संख्यात बहभाग जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके निःसत्त्वकर्मवाले होते हैं । यह इसका भावार्थ है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--पांच प्रकारसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस सूत्रसे जाना जाता है। और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंमें अनादि मिथ्यादृष्टियोंकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि उनका प्रमाण एक सौ आठ है। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान नित्यनिगोदसे चतुर्गतिनिगोदमें प्रवेश करनेवाले जीवोंका, सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीवोंका और चतुर्गतिनिगोदसे सिद्ध होनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट प्रमाण एक सौ आठ है इस प्रकार परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है, इसलिये सादिमिथ्यादृष्टि जीव वहां प्रधान हैं यह सिद्ध हुआ और वे एक समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे विशेष हीन हैं, क्योंकि आयके अनुसार व्यय नहीं माननेपर सादि मिथ्यादृष्टियोंके विच्छेद का प्रसंग प्राप्त होता है। अवक्तव्यको करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यह प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सर्वोपक्रमण काण्डकोंके जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरोंका कहा है, क्योंकि इसी प्रकार उनका संचय होता है। शंका--अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं, ऐसा क्यों नहीं कहा ? भाग असंख्यातगुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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