Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 340
________________ ३१९ होदि। गा० २२] हिदिविहत्तीए ट्ठिदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा असंखे०भागहा० असंखे०गुणा। अथवा अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणि । संखे गुणहाणिक० संखे०गुणा । संखे०भागहाणि० संखे०गुणा । असंखे०भागहाणिक असंखे०गुणा । सम्मामि० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिकम्मंसि० । संखे०भागहाणिक संखे०गुणा । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । एसा परूवणा अट्ठावोसं पयडीणं । सण्णियाणुवादेण सण्णीणं पुरिसवेदभंगो। आहारीणं मूलोघं । एवमप्पाबहुअं समत्तं । __ हिदिसंतकम्मद्वाणाणं परूवणा अप्पाबहुअं च । ६६०७. द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणं तेसिं चेव अप्पाबहुरं च भणाणि त्ति पइजासुत्तमेदं । समुक्त्तिणा किण्ण उत्ता ? ण, तिस्से एदेसु चेव अंतब्भावादो सामर्थ्यलभ्यत्वाद्वा । * परूवणा। .६६०८. दोसु अहियारेसु अप्पाबहुअं मोत्तूण परूवणं भणिस्सामो त्ति वुत्तं * मिच्छत्तस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि उक्कस्सिय द्विदिमादि कादूण जाव एइंदियपाओग्गकम्म जहण्णयं ताव णिरंताराणि अत्थि । असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अथवा, अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । यह प्ररूपणा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जाननी चाहिये । संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका भंग पुरुषवेदके समान है । आहारकोंका भंग मूलोघके समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। ॐ अब स्थितिसत्कर्मस्थानोंकी प्ररूपणा और अल्पबहुत्व इनका अधिकार है। ६६०७. अब स्थितिसत्कर्म स्थानोंकी प्ररूपणाका और उन्हींके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं, इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है। शंका-समुत्कीर्तनाका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, क्योंकि उसका इन्हीं दो अधिकारोंमें अन्तर्भाव हो जाता है या वह सामर्थ्यगम्य है, इसलिये उसका अलगसे कथन नहीं किया। * पहले प्ररूपणाका अधिकार है। ६६०८. दो अधिकारोंमें अल्पबहुत्वको छोड़कर पहले प्ररूपणाका कथन करते हैं यह इस सूत्रका तात्पर्य है। * मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्म उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्म तक निरन्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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