Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 343
________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पलिदो० असंखे०भागेणूणएगसागरोवमं त्ति । एवमेइंदियपाओग्गकम्मं जहण्णयं जाव पावदि ताव णिरंतराणि हाणाणि उप्पाइदाणि जेण तेणेदेसिमत्थित्तं सिद्धं । संपहि दंसणमोहक्खवणाए लब्भमाणट्ठाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि । * अण्णाणि पुण दंसणमोहकखवयस्स अणियट्रिपविहस्स जम्हि द्विदिसंतकम्ममेइंदियकम्मस्स हेह्रदो जाद तत्तो पाए अंतमुहुत्तमेत्ताणि . द्विदिसंतकम्महाणाणि लब्भंति ।। ____ ६११. एदाणि पलिदो० असंखे भागेणूणेगसागरोवमपरिहीणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तट्ठाणाणि मोत्तूण अण्णाणि वि हाणाणि लब्भंति । 'अवि'सद्दो कत्थुवलद्धो ? ण, 'पुण'सदस्स 'अवि'सद्दढे वट्टमाणस्स सुत्तत्थस्सुवलंभादो । ताणि कस्स लब्भंति ति पुच्छिदे दंसणमोहक्खवयस्से त्ति भणिदं । अणियट्टिपविट्ठस्से ति णि सो अपुव्वादिपडिसेहफलो। जम्हि डिदिसंतकम्ममेइदियट्टिदिसंतकम्मस्स हेढदो जादं ति जिद्द सो पुणरुत्तद्वाणपडिसेहफलो। अणियट्टिकरणभंतरे सागरोवममेत्तद्विदिसंतकम्मे दंसणमोहणीयस्स सेसे तक्खवओ पलिदो० संखे०भागमेत्तद्विदिकंडयमागाएदि । तं पुण एइदियवीचारहाणेहिंतो असंखेजगुणं, तेसिं पलिदो० असंखे०भागत्तादो । तस्स विदिकंडयस्स जाव दुचरिमफाली पददि ताव पुणरुत्तहाणाणि सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक स्थिति घटाते जाना चाहिये। चूँकि इस प्रकार एकेन्द्रियके योग्य जघन्य कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान उत्पन्न किये अतः इनका अस्तित्व सिद्ध होता है। अब दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें प्राप होनेवाले स्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हुए जीवके, जहाँ स्थितिसत्कर्म एकेन्द्रियके योग्य कर्मसे नीचे हो जाता है वहाँसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्य स्थितिसत्कर्म प्राप्त होते हैं। ६६११. पल्यका असंख्यातवां भागकम एक सागर हीन सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थानोंको छोड़कर ये अन्य भी स्थान प्राप्त होते हैं। शंका-यहाँ 'अपि' शब्द कहाँ से प्राप्त हुआ ? समाधान नहीं, क्योंकि सूत्र में 'अपि' शब्दके अर्थमें 'पुण' शब्द विद्यमान है, अतः उसके साथ सूत्रका अर्थ घटित हो जाता है। ये स्थान किसके प्राप्त होते हैं ऐसा पूछनेपर 'दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके प्राप्त होते हैं ऐसा कहा। सूत्रमें 'अणियट्टिपविट्ठस्स' इस प्रकारके निर्देशका फल अपूर्वकरण आदि शेषका निषेध करना है। 'जम्हि ट्ठिदिसंतकम्ममेइंदियट्ठिदिसंतकम्मरस हेढदो जादं' इस प्रकारके निर्देशका फल पुनरुक्त स्थानोंके निषेधके लिये किया है। अनिवृत्तिकरणके भीतर दर्शनमोहनीयके एक सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर उसकी क्षपणा करनेवाला जीव पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक करता है। परन्तु वह स्थितिकाण्डक एकेन्द्रियोंके वीचारस्थानोंसे असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि एकेन्द्रियोंके वीचारस्थान पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । उस स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालिके पतन होने तक पुनरुक्त Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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