Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 326
________________ गा० २२] विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुरं ३०५ पंचिंदियतिरिक्खतियस्स णेरइयभंगो । एइंदिएहितो पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि उप्पजिय संखे गुणवढि संखे०भागवद्धिं च कुणमाणा जीवा किं घेप्पंति आहो ण घेप्पंति ? जदि ण घेप्पंति तो विदियादिपुढविणेरइएसु व संखे गुणवडिकम्मंसिया संखे०गुणहाणिकम्मंसिएहि सरिसा होति । अह घेप्पंति, संखे०भागहाणिकम्मंसिएहितो संखे०गुणवडिकम्मंसिया ओघे इव असंखेजगुणा होज । ण च मग्गणविणासभएण ण उप्पाइजंति, जेरइएसु वि तहा पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो उच्चदे, ण ताव ण घेप्पंति त्ति अणब्भुवगमादो। ण च संखे गुणहाणिविहत्तिए हितो संखे०भागहाणिविहत्तिएहिंतो च संखे गुणवहिविहत्तियाणमसंखेजगुणत्तं, सत्थाणे संखेगुणहाणिं कुणमाणजीवाणमसंखे०भागमेत्ताणं संखे०भागमेत्ताणं वा एईदिएहिंतो पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि उप्पत्तीदो। तेण कारणेण पंचिंतिरि०तियम्मि संखेन्गुणहाणिविहत्तिएहितो संखे गुणवहिविहत्तिया विसेसाहिया जादा । जदि एवं तो ओघम्मि कथं संखे०भागहाणिविहत्तिए हिंतो संखेगुणवड्डिविहत्तियाणमसंखेगुणत्तं ? ण, एईदिएहिंतो विगलिंदिएसुप्पन्जिय संखेजगुणवहिं कुणमाणजीवे पडुच्च तत्थ असंखे०गुणत्तं पडि विरोहाभावादो। संखे भागहाणि विहत्तिएहितोसंखे भागवड्डिविहत्तियाणं तिरिक्खेसु कधं सरिसत्तं? कथं च शंका-एकेन्द्रियोंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें उत्पन्न होकर संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातभागवृद्धिको करनेवाले जीव यहाँ क्या ग्रहण किये हैं या नहीं ग्रहण किये हैं ? यदि ग्रहण नहीं किये हैं तो द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकियोंके समान यहाँ भी संख्यातगणवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीवोंके समान प्राप्त होते हैं। यदि ग्रहण किये हैं तो संख्यातभागहानिकर्मवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव ओघके समान असंख्यातगुणे हो जायँगे। और मार्गणाके विनाशके भयसे नहीं उत्पन्न कराते हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि नारकियोंमें भी उस प्रकारका प्रसङ्ग प्राप्त होता है। समाधान—आगे इस शंकाका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि नहीं ग्रहण करते हैं यह पक्ष इष्ट नहीं है, क्योंकि इसे स्वीकार नहीं किया है। और संख्यातगुणहानि विभक्तिवालोंसे तथा संख्यातभागहा नविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं नहीं, क्योंकि स्वस्थानमें संख्यातगुणहानिको करनेवाले जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र या संख्यातवें भागमात्र जीव एकेन्द्रियोंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें उत्पन्न होते हैं. इसलिये पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें संख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हुए। ___ शंका-यदि ऐसा है तो ओघमें संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे कैसे होते हैं ? । समाधान नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंमेंसे विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर संख्यातगुणवृद्धिको करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा वहाँ असंख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं है। शंका-संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंकी पंचेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें समानता कैसे है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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