Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 301
________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ • ०गुणवड्डि विहत्तिया असंखे० गुणा होंति । को गुणगारो ? संखेजभागहाणिविहत्तियाणमंतोमुहुत्त भागहारे संखेज्जगुणवड्डिविहत्तियाणं भागहारेण आवलियाए असंखे ०भागेण भागे हिदे जं लद्धं सो गुणगारो । तसट्ठिदिं समाणिय एइंदिएस उपजमाणतसकाइया तस सिस्स असंखे० भागमेत्ता । तेसिं भागहारो पलिदो ० असंखे ० भागो | तं जहा - अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे जदि आवलियाए असंखे० भागमेत्तो उवकमणकालो भदि तो सदिए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तो उवकमणकालो लब्भदि । पुणो एत्तियमेत्त उवकमणकालम्हि जदि तसरासिस्स संचओ लब्भदि तो एगसमयम्मि किं लभामो त्ति तसो - वकमणकालेण तसरासिम्हि ओवट्टिदे एइंदिहिंतो तसकाइएसु उप्पजमाणरासी होदि, आयम्स वयानुसारित्तादो । हेदू णायमसिद्धो, तसरासीए णिम्मूलक्खयाभावेण तस्स सिद्धो । दे संखेजगुणवड्डिविहत्तिया संखे० गुणहाणि विहत्तिए हिंतो असंखेजगुणहीणा, तब्भागहारं पेक्खिय असंखेजगुण भागहारत्तादो । तेण संखे० भागहाणिविहत्तिर्हितो संखेजगुण वड्ढिविहत्ति याणमसंखे० गुणत्तं ण घडदि त्ति १ ण, एवं संते विगलिंदियरासीणं पंचिंदियअपजत्तरासोए पंचिंदियसंखेजवस्साउअपजत्तरासीए विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं । शंका- गुणकार क्या है ? समाधान —संख्यात भागहानिविभक्तिवालोंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण भागहार में संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारका भाग देने पर जो लब्ध आवे वह गुणकार है । त्रसोंकी स्थितिको समाप्त करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले सकायिक जीव सराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और उनका भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । जो इस प्रकार है- अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर, यदि आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण उपक्रमण काल प्रात होता है तो सब त्रसस्थितिकाल में कितना उपक्रमणकाल प्राप्त होगा । इस प्रकार फलगुणित इच्छाराशिको प्रमाण राशिसे भाजित करने पर पल्य का असंख्यातवां भाग उपक्रमणकाल प्राप्त होता है । पुनः इतने उपक्रमण कालमें यदि त्रस राशिका संचय प्राप्त होता है तो एक समय में कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार सराशिके उपक्रमण काल से सराशिके भाजित करने पर एकेन्द्रियों में से त्रसकायिकों में उत्पन्न होनेवाली राशि प्राप्त होती है, क्योंकि आय व्ययके अनुसार होती है । यह हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि सराशिका समूल नाश नहीं होता । अतः उसकी सिद्धि हो जाती है । शंका- ये संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणहानिविभक्तवाले जीवोंसे असंख्यात गुणे हीन होते हैं, क्योंकि संख्यातगुणवृद्धिवालोंके भागहारको देखते हुए संख्यातगुणहानि विभक्तिवालोंका भागहार असंख्यातगुणा बड़ा है । अतः संख्यातभागहानिविभक्तिवालों से संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं. यह बात नहीं बनती है ? समाधान — नहीं, क्योंकि ऐसा माननने पर - विकलेन्द्रिय जीवराशि, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवराशि और पंचेन्द्रिय संख्यात वर्ष आयुवाली पर्याप्त जीवराशिका प्रमाण जगप्रतर में पल्यके २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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