Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअ
२८१
च जगपदरं पलिदो० असंखे ० भागमे तपदरं गुलेहि खंडिदएगखंडपमाण तप्प संगादो । तम्हा तप्पा ओग्गसंखेज्जावलियमे त्तकालब्भंतरुवकमण कालसंचिदेण तसरासिणा होदव्वं, अण्णा तेसिं पदरंगुलस्स असंखे० भागेण संखे० भागेण संखेजपदरंगुलेहि य खंडिदजगपदरपमाणत्तविरोहादो । तसवियलिंदिय-पंचिंदिय विदीओ समार्णेतजीवाणं पउरमसंभवादो च, आयाणुसारी वओ त्ति कट्टु तसकाइएहिंतो एइंदिएसु आगच्छंता जगपदरमावलियाए असंखे० भागमेत्तपदरं गुलेहि खंडिदेयखंडमेत्ता होंति । पुणो एदिएहिंतो तत्तियमेत्ता चेव तसेसुप्पज्जंति तेण संखेजभागहाणि विहत्ति एहिंतो संखे० गुणवडिविहत्तियाणमसंखेअगुणचं घडदि ति घेत्तव्यं ।
* संखेज्जभागवड्डिकम्मंसिया संखेज्जगुणा |
$ ४६५ सत्थाणे संखे० भागहाणि विहत्तिए हिंतो संखे० भागवड्डिविहत्तिया सरिसा । कुदो १ संखेजभागहाणिणि मित्तविसोही हिंतो संखे० भागवड्डिणिमित्त संकिलेसाणं सरिसत्तादो | एवं संते संखेज्जभागहाणि विहत्तिए हिंतो असंखे० गुण-संखे० गुणवड्डिविहत्तीए पेक्खिदूण कथं संखेजभागवड्डिविहत्तियाणं संखे० गुणत्तं घडदे ? ण एस दोसो, संकिलेसेण विणा जादिविसेसेण वड्डिदसंखेज्जभागवड्ढिविहत्तीए पेक्खिदृण संखेज
असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतरांगुलों का भाग देनेपर जो भाग आवे उतना प्राप्त होता है । इसलिए तत्प्रायोग्य संख्यात आवलिकालनिष्पन्न उपक्रमण कालके द्वारा संचित त्रसराशि होनी चाहिए । अन्यथा उनका प्रमाण जगप्रतर में प्रतरांगुलके असंख्यातवें भाग, प्रतरांगुलके संख्यातवें भाग और संख्यात प्रतरांगुलका भाग देने पर जितना प्राप्त हो उतना होनेमें विरोध आता है । और त्रस, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियों की स्थितिको समाप्त करनेवाले प्रचुर जीवोंका पाया जाना संभव नहीं है | अतः आयके अनुसार व्यय होता है ऐसा समझ कर त्रसकायिकों में से एकेन्द्रियोंमें आनेवाले जीवोंका प्रमाण जगप्रतर में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतरांगुलोंका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होगा उतना होता है । पुनः एकेन्द्रियोंमेंसे उतने ही जीव त्रसोंमें उत्पन्न होते हैं, अतः संख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे बन जाते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
* संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं ।
§ ५६५. स्वस्थानमें संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंके संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव समान हैं, क्योंकि संख्यातभागहानिकी निमित्तभूत विशुद्धिसे संख्यातभागवृद्धिके निमित्तभूत संक्लेश परिणाम समान हैं ।
शंका- ऐसा रहते हुए संख्यात भागहानिविभक्तिवालोंसे असंख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंको देखते हुए संख्यात भागहानिविभक्तिवाले जीवोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं ।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संक्लेशके बिना जातिविशेषसे वृद्धिको प्राप्त हुए संख्यात भागवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंको देखते हुए उनके संख्यातगुणे होने में कोई विरोध
१. ता० प्रतौ विहतियाण संखेज्जगुणत, श्रा० प्रतौ विहत्तिएण संखेज्जगुणत्तं इति पाठः । ३६
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