Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ वड्डिपरूवणाए पोसणं
२४५ ६३९१. संजदासंजद० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे०भागहाणिवि० लोग० असं०भागो छचोदस० देसूणा । संखे०भागहाणि लोग० असंखे०मागो। मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० संखे गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० लोग० असंखे०भागो ।
६ ३९२ किण्ण-णील-काउ० छब्बीसंपयडीणमसंखे०भागवडि-हाणि अवधि के ? सव्वलोगो । दोववि-दोहाणिवि० केव० १ लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणंतागु० चउक० असंखेगुणहाणि-अवत्तव्य. लो० असंखे०भागो। इस्थि-पुरिस० दोवड़ि. लोग० असंखे०भागो वे-चत्तारि-छचोदसभागा वा देसूणा । सम्सत्त-सम्मामि० चत्तारि
विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी आदि तीन ज्ञानियोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवा सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि क्षपणाके समय होती है, इसलिए इसकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष सब स्पर्शन इन मार्गणाओंके स्पर्शनके समान घटित होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि ये तीन मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा है। मात्र शुक्ललेश्याका अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजु प्रमाण होनेसे इसमें कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शनके स्थानमें यह स्पर्शन जानना चाहिए। साथ ही शुक्ललेश्यामें अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वके जो अतिरिक्त पद होते हैं जो कि पूर्वोक्त मार्गणाओंमें सम्भव नहीं उनका मूलमें कहे अनुसार स्पर्शन अलगसे घटित कर लेना चाहिए। कोई वक्तव्य न होनेसे यहाँ हमने उसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है।
६३९१. संयतासंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। संख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-संयतासंयतोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है। अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। पर इन प्रकृतियोंकी यथासम्भव शेष हानियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्शन प्राप्त होता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। कारण स्पष्ट है।
६३९२. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग
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