Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 267
________________ ३४६ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ड- अव ० - अवत्तव्व० लोग० असंखे० भागो । चत्तारिहाणि० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । $ ३६३. तेउ० छब्बीसं पयडीणमसंखे० भागवड्डि-हाणि संखे ० भागवड्डि- हाणिसंखेज्जगुणवड्डि-हाणि अवट्ठि ० लोग० असंखे० भागो अट्ठ-णवचोदस० देसूणा । णवरि इत्थि - पुरिस० तिष्णिवड्डि-अवट्ठि ० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोदसभागा वा देखणा । अनंताणु ० चउक्क० असंखे० गुणहाणि अवत्तव्ध० लोग० असंखे ० भागो अट्ठचोदस ० देसूणा | मिच्छत्त० असंखे ० गुणहाणिवि० लोगस्स असंखे० भागो । सम्मत्त सम्मामि० तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमें से क्रमसे कुछ कम दो, कुछ कम चार और कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - कृष्णादि तीन लेश्याओंका वर्तमान स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण है । यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। मात्र इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंके ही होते हैं और ये पद मारणान्तिक समुद्धात आदिके समय नहीं होते, अतः इनकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ द्वीन्द्रियादिकके ही होती हैं जिनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियों में कृष्णादि लेश्यावालोंका मारणान्तिक समुद्धात द्वारा स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजुप्रमाण है, अतः यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। इन लेश्याओं में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद सम्यक्त्वके समय होते हैं और ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। तथा इनकी चारों हानियाँ किसीके भी सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। $ ३९३ पीतलेश्यावालोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेद की तीन वृद्धि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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