Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
आवलि०
[ द्विदिविहत्ती ३ असंखे ० भागो । एवं सव्वणेरइय- सव्वपंचिंदियतिरिक्ख ० -देव-भवणादि जाव सहस्सार ० - पंचिंदिय अपज्ज० तस अपज्ज० - वेडव्विय० जोगि ति । तिरिक्खे ओघं । वरि मिच्छत्त बारसक० णवणोक० असंखे० गुणहाणी णत्थि ।
९४०३. मणुस्सेसु छब्बीसं पयडीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि असंखे० गुणहाणी • अणंताणु ० चउक्क० अवत्तव्व ० जह० । एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवड्डि-अवडि० अवत्तव्वं च ज० एगसमओ, उक्क० संखे० समया । चत्तारिहाणिवि० ओघं । एवं मणुसपजत्त - मणुसिणीणं । गवरि जम्हि श्रवलियाए असंखे० भागो तम्हि संखे० समया । किंतु मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० - तेरसक ० संखे० भागहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० भावलि० असंखे ० भागो । मणुस अपज० छब्बीसं पडीणमसंखे ० भागहाणि अवद्वि० सम्मत्त सम्मामि ० असंखे ० भागहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सेसपदवि० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि०
असंखे ० भागो ।
S४०४. आणदादि जाव णवगेवज्ज० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि ० सव्वद्धा । सेसपदवि० ज० एयसमओ, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अणुद्दिसादि जाव अवराइद ति एसो चेव भंगो। णवरि सम्मत्त • संखे० गुणहाणि० जह० एगस ०, उक्क ०
भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। तिर्यंचोंमें सब पदोंका काल ओघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातगुणहानि नहीं है ।
९४०३. मनुष्यों में छब्बीस प्रकृतियों का भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणहानिका और अनंतानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा चार हानिस्थितिविभक्तियोंका काल ओघ के समान है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ आवली के असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ संख्यात समय काल कहना चाहिए । किन्तु मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और तेरह कषायोंकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियों की असंख्यातभागहानि और अवस्थितका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा शेष पद स्थितिविभक्तियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
$ ४०४. आनतकल्पसे लेकर नौग्रैवेयक तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिक काल सर्वदा है । तथा शेष पदस्थितिविभक्तियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें यही भंग है ।
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