Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 295
________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ अट्ठावीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि संखे० भागहाणि० अनंताणु० चउक्क० संखे०गुणहाण - असंखे० गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरते सादिरेगे । सासण० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज भागहाणि० ज० एगस०, उक्क ० पलिदो० असंखे ० भागो । सम्मामि० असंखे० भागहाणि संखे० भागहाणि संखे० गुणहाणि० ज० एस ०, उक० पलिदो ० असं० भागो । मिच्छाइट्ठी० मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० तिण्णिवड्डि-तिष्णिहाणि - अट्टिदाणमोघं । सम्मत्त - सम्मामि० चदुण्हं हाणीणमोघं । 1 ९ ४५८. सणियाणु सण्णि० चक्खुदंसणिभंगो | असण्णि० मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० असंखे ० भागवड्डि-हाणि-अवडि० णत्थि अंतरं । संखे ० भागवड्डि- हाणिसंखे० गुणवड्डि- हाणि० ओघं । सम्मत्त सम्मामि० चदुण्हं हाणीणमोघं । एवमंतराणुगमो समत्तो S ४५९. भावो - सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं जाव० । ० * अप्पाबहु § ४६०. सुगममेदं, अहियारसंभालणफलत्तादो | * मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिकम्मसिया । समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यात भागहानिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में असंख्यात - भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । मिथ्यादृष्टियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित का अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका अन्तर ओघके समान है । $ ४५८. संज्ञी मार्गणाके अनुवाद से संज्ञियोंमें चक्षुदर्शनवालोंके समान भंग है । असंज्ञियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंको असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है । संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका अन्तर ओघ के समान है । इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । ९ ४५९. भाव सर्वत्र औदयिक है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । * अब अल्पबहुत्वानुगमका अधिकार है । ६४६०. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल केवल अधिकारकी सम्हाल करना है । * मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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