Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं
२०६ अंतरं। असंखजभागहाणी० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । तिहं हाणीणं णत्थि अंतरं। वेउचि०मिस्स० ओरालियमिस्स भंगो । णवरि छब्बीसंपयडीणं संखेजभागवड्डीए सत्तणोक० संखेज्जगुणवड्डीए च जहण्णमंतरमेगसमओ णत्थि । किंतु अंतोमुहुत्तं । कम्मइय० अट्ठावीसं पयडि० सव्वपदाणंणत्थि अंतरं। एवमणाहारीणं । आहार० आहारमिस्स० सव्वासि पयडीणं असंखेजभागहाणीए णत्थि अंतरं। एवमकसा० जहाक्खाद० सासण दिहि ति । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अतर अन्तर्मुहूर्त है। तीन हानियोंका अन्तर नहीं है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। कितु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धिका तथा सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं है किन्तु अन्तर्मुहूर्त है। कार्मणकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-चारों मनोयोग और चारों वचनयोगोंमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि, असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थित पदोंका अन्तरकाल तो बन जाता है, क्योंकि ये पद कमसे कम एक समयके अन्तरसे भी होते हैं, इसलिये यहाँ इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा। किन्तु शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं बनता, क्योंकि उक्त मनोयोगोंके कालसे शेष पदोंके अन्तरकालका प्रमाण अधिक है। यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यवृद्धिका अन्तरकाल क्यों नहीं बनता इसका कारण मूलमें बतलाया ही है। उक्त योगवालोंमेंसे कोई एक योगवाला जोव सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि कर रहा है। अब दूसरे समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसने अन्य पदों द्वारा असंख्यातभागहानिको अन्तरित कर दिया और तीसरे समयमें वह पुनः असंख्यातभागहानिको प्राप्त हो गया तो असंख्यातभागहानिका अन्तर एक समय प्राप्त होता है। तथा कोई एक ऐसा जीव है जो उक्त योगोंमेंसे विवक्षित
के भीतर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता है तथा अन्तर्महर्तमें ही सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः इनकी सत्ताको प्राप्त होकर दूसरे समयसे असंख्यातभागहानि करने लगता है तो उसके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं बनता, क्योंकि उक्त योगोंके कालसे शेष पदोंका जघन्य अन्तरकाल भी बड़ा है। असंख्यातभागहानिकाण्डकघातका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतएव काययोगमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । काययोग का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है, इसलिये इसमें उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण बन जाता है। कोई एक काययोगी जीव है जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर रहा है। प्रारम्भमें और अन्तमें उसने इनकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि की तो इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ प्रारम्भमें स्थितिकाण्डकघातसे संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि प्राप्त करना चाहिये । और अन्तमें जब जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब संख्यातभागहानि होती है। तथा
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