Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ ३८७. इथिवेद० छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवति हाणि. [ संखेजभागवड्डिहाणि-] संखे गुणवड्डि-हाणि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोदस० देरणा सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अड. चोद्द०भागा वा देसूणा । सव्वकम्माणमसंखे गुणहाणि लो० असंखे०मागो। अणंताणु०चउक० असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्य. लो० असंखे०भागो अहचोद्द० देसूणा । सम्मत्त-सम्मामि० चचारिवाड्डि-अवढि०-अवत्तव्य. केव० १ लो० असंखे०मागो अट्टचोद्द० देसूणा। चत्तारिहाणि लोग. असंखे०भागो अट्ठचोद्द० सवलोगो वा । पुरिसवेदे इत्थिवेदभंगो।
विशेषार्थ-आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ अपगतवेदी आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें इसीप्रकार स्पर्शन घटित होता है, इसलिए उनके कथनको आहारककाययोगीद्विकके समान जाननेकी सूचना की है।
६३८७ स्त्रीवेदियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कछ कम आठ भाग है । तथा सब कर्मोकी असंख्यातगुणहानिका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग
और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको चारवृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनाली के चौदह भेदोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पुरुषवेदियोंमें स्त्रीवेदियोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण है। इन सब स्पर्शनोंके समय छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थितपद सम्भव हैं, इसलिए यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थित पदका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण है। यहाँ उपपाद पदकी विवक्षा नहीं होनेसे अन्य स्पर्शन नहीं कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवा पूर्वोक्त बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि उनकी क्षपणाके समय होती है, इसलिए इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पद की अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि चारों गतिके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि जीव इसकी विसंयोजना करते हैं और ऐसे
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