Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 237
________________ २१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ कादण पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे आउए अणंताणु० विसंजोएंतस्स सव्वकम्माणं संखेजभागहाणीए उवलंभादो। णेदं मणपजवणाणी लब्मदि; उवसमसम्मत्तद्धाए उवसमसेढि. वजाए मणपजवणाणाणुप्पत्तीदो। ६ ३४८. परिहारसुद्धि० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउकाणं मणपज० गो। बारसक० णवणोक० एवं चेव । णवरि संखेजगुणहाणि-असंखेजगुणहोणीओ णस्थि । सुहुमसांपराय० वीसं पयडीणमसंखेजभागहाणी० णस्थि अंतरं । दंसणतिय-लोभसंजल. असंखेजभागहाणी. जहण्णुक० एगस० । संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० अंतोमु० । लोभसंजल० संखेजगुणहाणी० एवं चेव । संजदासंजद० संजदभंगो । णवरि बारसक० णवणोक० संखेजगुणहाणि-असंखेजगुणहाणीओ णत्थि । ६३४६. असंजद० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० असंखेजमागवडि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेतीसं सागरो० देसूणाणि । संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डिदोहाणीणमोघं । मिच्छत्त० असंखे गुणहाणी. जहण्णुक० अंतोमु० । संखेजगुणहाणी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो। णवरि असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत्तव्वमोघं । सम्मत्त०-सम्मामि० ओघभंगो। भागहानि करके पुनः आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हुये सब कर्मोंकी संख्यातभागहानि पाई जाती है। किन्तु इस अन्तरको मनःपर्ययज्ञानी नहीं प्राप्त करता है, क्योंकि उपशमश्रेणीको छोड़कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है। ६३४८. परिहारविशुद्धिसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि नहीं हैं। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। तीन दर्शनमोहनीय और लोभसंज्वलनकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणहानिका अन्तर इसी प्रकार है। संयतासंयतोंका भंग संयतोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि नहीं हैं। ६३४९. असंयतोंमें मिथ्यात्व, बारहकषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और दो हानियोंका अन्तर ओघके समान है। मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवक्तव्यका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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