Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
ड्ड - हाणि संखे ० गुणहाणि - अट्ठि ० लोग असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० दोवड्ढि - अवडि० लोग० असंखे ० भागो । सम्मत्त सम्मामि० चदुष्णं हाणीणमोघं ।
९ ३८१. पंचिदिय पंचिं ० पज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० सव्वपदवि० लोग ० असंखे० भागो अट्ठचोद्द सभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । असंखे० गुणहाणि० खेत्तभंगो । वरि अणंताणु ० असंखे ०गुणहाणि अवत्तव्व० अट्ठचोद्दस० देसूणा । इत्थि - पुरिस० तिण्णिवड्डि अवट्टि० लोग० असंखे० भागो अट्ठ-बारहचो६० देसूणा । सम्मत्त सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवट्ठि ० - अवत्तव्व० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद्दस० देभ्रूणा । चचारि - हाणि ० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद० देसूणा सव्वलोगो वा । एवं तस-तसपञ्ज ०पंचमण० पंचवचि ० चक्खुदंस०-सण्णि त्ति ।
संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका स्पर्शन ओघके समान है ।
विशेषार्थ - विकलेन्द्रियोंका जो स्पर्शन है वह इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, तीन हानि और अवस्थान पद में भी सम्भव है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धि और अवस्थान पदके समय नपुंसकवेदियों में मारणान्तिक समुद्धात सम्भव नहीं है तथा विकलत्रयोंमें उपपादपद भी सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के चार पदों की अपेक्षा स्पर्शन ओघके समान है यह स्पष्ट ही है ।
९ ३८१ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायांके सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा असंख्यातगुणहानिका भंग क्षेत्रके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यका स्पर्शन त्र्सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार त्रस त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए ।
विशेषार्थ – पंचेन्द्रियद्विकका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, कुछकम आठब चौदह राजुप्रमाण और सब लोक प्रमाण है । वह यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंके सब पदोंका सम्भव होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवा इन प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि क्षपणा के समय होती है इसलिए इस अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है यह स्पष्ट ही है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद विहारादिके समय भी सम्भव हैं,
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