Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
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९ ३७८ देवेसु मिच्छत्त - बारसक० सत्तणोक० सव्वपदवि० लो० असंखे० भागो अट्ठ-णवचो६० देसूणा | अणंताणु० चउक्क० असंखे० गुणहाणि-3 - अवत्तव्व ० इत्थि पुरिस तिण्णिवड्डि-अवट्ठि० सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवड्ढि अवडि० - अवत्त ० लो० असंखे० भागो अचो६० देखणा | सेसपदवि० अट्ठ-णवचो६० देसूणा । एवं भवणादि जा सहस्सार ति । णवरि सगपोसणं वत्तव्वं । आणदादि जाव अच्चुद ति अट्ठावीसं पडणं सव्वपदवि० लोग० असंखे ० भागो छचोदस० देखणा । उवरि खेत्तभंगो |
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स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ उन सब जीवोंके सम्भव हैं जो इन प्रकृतियोंकी सत्ता के साथ एकेन्द्रियादिमें उत्पन्न होते हैं । यतः इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, अतः यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ इन दो प्रकृतियोंके शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक छब्बीस प्रकृतियोंके सम्भव सब पदोंका स्वामित्व ओघके समान होनेसे उनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और पुरुषवेद इसके अपवाद हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके जिन पदोंके स्पर्शनमें विशेषता है उसे अलग से स्पष्ट किया है । इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चों के समान प्राप्त होनेसे वह उनके समान कहा है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितपदके स्पर्शन में ही विशेषता है । शेष स्पर्शन इन दोनों मार्गणाओंके स्पर्शनके समान ही है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और स अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए । एकेन्द्रिय आदिमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले इन जीवोंके या जो एकेन्द्रिय आदि जीव मर कर इनमें उत्पन्न होते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थित पद नहीं होते, इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। मनुष्यत्रिक में और सब स्पर्शन तो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान बन जाता है । मात्र इनमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भी असंख्यातगुणहानि सम्भव है, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणहानिका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है ।
$ ३७८. देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग है । तथा शेष पदोंका स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तक जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसके ऊपर स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है ।
विशेषाथ - देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थितपद तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की
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