Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं
१६५ भागहाणीए जह० एगस०, उक्क० वेछावद्विसागरो० देसूणाणि । असंखेजगुणहाणिअवत्तव्वाणमंतरं जह• अंतोमुहु०, उक. उबड्डपोग्गलपरियढें । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवविदाणमंतरं जह० अंतोमुहु० । असंखेजमागहाणी० जह० एगसमओ। असंखेजगुणवड्डि-अवत्तव्वाणमंतरं जह० पलिदो० असंखेजदिमागो। उक० सव्वेसिमुवड्डपोग्गलपरियढें ।
प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहाणि और अवक्तव्य का जघन्य अन्तर अन्तमुहूत और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवतेनप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।
विशेषार्थ-यतिवृषभ आचार्यने अपने चूर्णिसूत्रों में ओघसे मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल बतलाया है । तथा वीरसेन स्वामीने अपनी टीकामें वह अन्तर काल कैसे प्राप्त होता है इसका विस्तृत विवेचन किया है। किन्तु शेष कर्मों की वृद्धि, हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंके अन्तरकालका यतिवृषभ आचार्यने पृथक-पृथक् उल्लेख न करके केवल इतना ही कहा है कि 'इस बीजपदसे शेष कर्मों की वृद्धि आदिका अन्तरकाल जान लेना चाहिये । इस प्रकार हम देखते हैं कि यतिवृषभ आचायके चूणिसूत्रोंमें हमें मिथ्यात्व की वृद्धि आदिके अन्तरका ही उल्लेख मिलता है शेष कर्मोंकी वृद्धि आदिक अन्तरका नहीं। तथापि इसकी पूर्ति उच्चारणासे हो जाती है। उच्चारणामें सब कर्मों की वृद्धि आदिके अन्तरका पृथक् पृथक् निर्देश किया है जो मूल में निबद्ध है ही। उसमेंसे जिन कर्मोंको वृद्धि आदिका अन्तर मिथ्यात्वकी वृद्धि आदिके अन्तरसे विशेषता रखते हैं उनका यहाँ खुलासा किया जाता है-- स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धि का जघन्य अन्तर एक समय न प्राप्त होकर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है। इसका वीरसेन स्वामीने जो खुलासा किया है उसका भाव यह है कि जो दोइन्द्रिय आदि जीव मर कर तीन इन्द्रिय आदि होते हैं वे अपनी पर्यायके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालतक स्त्रावेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं करते । इसलिये ऐसा जीव लो जो दोइन्द्रिय पर्यायसे तेइन्द्रिय पर्यायमें उत्पन्न हुआ हो और जिसके खावेद और पुरुषवेदकी स्थिति कषायकी स्थितिके समान हो । अब उसने उत्पन्न होनेके पहले समयमै संख्यातभागवृद्धिरूपसे स्त्रीवेद या पुरुषवेदका बन्ध किया। पुनः अन्तमुहूर्त काल के बाद दूसरी बार इसी प्रकार वन्ध किया तो इस प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थितिकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धाचतुष्कका और सब कथन तो मिथ्यात्वके समान है। किन्तु असंख्यातभागहानि और असख्यातगुणहानिके उत्कृष्ट अन्तर काल में विशेषता है । बात यह है कि जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व सम्भव है और अनन्तानुबन्धीका सत्त्व होनेपर असंख्यातभागहानि नियमसे होती है। किन्तु इसका पुनः सत्त्व प्राप्त करने में सबसे अधिक काल कुछ कम एकसौ बत्तास सागर लगता है, अतः अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर कहा है। तथा असंख्यातगुणहानि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय प्राप्त होती है। इसमें असंख्यातगुणहानका जघन्य अन्तरकाल तो पूर्ववत् है। किन्तु उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि अर्धपुद्गलपारवतनके प्रारम्भ में और अन्तमें जिसने
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