Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ कायव्वा । पंचिंदियअपज्ज-तसअपज्जत्ताणं पंचिं०तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि तसअपज्ज० दोवड्डी० जह० एगसमओ । $ ३३५. जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि० असंखेज्जभागवड्डि० असंखेज्जभागहाणि-अवडिदाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जमागहाणि अपर्याप्तकोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उस अपर्याप्तकोंके दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय है। विशेषार्थ-यहाँ ओघसे यद्यपि मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात. भागवृद्धि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर बतलाया है पर यह समान्य निर्देश है। विशेषनिर्देशकी अपेक्षा तो इसमें एक अन्तमुहूर्त काल और मिजाना चाहिये, क्योंकि उपरिम ग्रंवय से च्युत होकर कोटिपूर्व आयुवाले मनुष्यामें उत्पन्न होनेवाले जीवके एक अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितपद नहीं होता, इसलिये यहाँ पंचेन्द्रिय और पर्याप्तकोंके उक्त प्रकृतियोके उक्त दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूते और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर कहा है। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि और सख्यातगुण. हानिका उत्कृष्ट अन्तर जा दो अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर कहा है वहाँ भी तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर कालके प्रारम्भ और अन्तमें प्राप्त होनेवाला अन्तरका एक-एक अन्तमुहूतं काल और बढ़ा लेना चाहिये, क्योंकि भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके कमसे कम एक अन्तमुहूर्त काल पहलेसे सख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि नहीं होती और नौवें वेयकसे च्युत हुए जीवके भी कमसे कम एक अन्तमुहूर्त कालतक ये पद नहीं होते। संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल जो पल्यके असंख्यातवेंभाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर बतलाया है सा इस अन्तरका कारण असख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये जिसका विस्तारसे विवेचन काल प्ररूपणामें किया ही है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके वाद पुनः उसके संयक्त होने में सबसे अधिक काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर लगता है. अतः यहाँ अनन्तानबन्धीकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण बतलाया है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और सौ सागरपृथक्त्व है। अब यदि इन जीवोंने अपने अपन काल के प्रारम्भमें और अन्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाकी और विसंयोजनाके बाद यथायोग्य उससे संयुक्त हुए तो इनके अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी अपना विशेषताका विचार करके इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके समान त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकोंके कथन करना चाहिये। किन्तु जहाँ जहाँ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट स्थिति कही हो वहाँ वहाँ त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये। तथा त्रसोंमें विकलत्रय जीव भी सम्मिलित हैं, अतः इनके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर ओघके समान बन जाता है। बस अपर्याप्तकोंके दो वृद्धियोंके जघन्य अन्तर एक समय बतलानेका भी यही कारण है। शेष कथन सुगम है। ६३३५. योगमार्गणाके अनुवादसे पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि संख्यातगुणहानि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376