Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 217
________________ १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६३२५. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डिअवविद० जह० एगसमओ। दोवड्डि-दोहाणीणं जह० अंतोमुहुः । उक्क० सव्वेसि पि' तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । असंखेजभागहाणी० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि तिण्णिवड्डि. दोहाणि-अवट्ठिदाणं जह० अंतोमुहत्तं । असंखेजभागहाणी० जह० एगसमओ । असंखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्य. जह० पलिदो० असंखेजदिमागो, उक० सम्वेसि पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु० चउक्क० असंखेजभागवति-असंखेजमागहाणि-अवडिद० जह० एगस०। दो वड्डि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० जह० अंतोमु०, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके उसकी असंख्यातगुणहानिका उक्त प्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति भी होती है जिसका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाला असंख्यातगुणहानिके समान प्राप्त होता है । अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ सो इनकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। खुलासा इस प्रकार है-वृद्धि सम्यक्त्व प्राप्तिके प्रथम समममें होती है। अब जिस वृद्धिका अन्तर प्राप्त करना हो अन्तर्मुहूर्तके अन्दर दो बार सम्यक्त्व प्राप्त कराके दोनों बार सम्यक्त्व प्राप्त होनेके प्रथम समयमें उसी वृद्धिको प्राप्त कराओ इस प्रकार तीन वृद्धियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त प्राप्त होजाता है। इसी प्रकार अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर प्राप्त करना चाहिये। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ अपने योग्य स्थितिकाण्ड ककीअन्तिम फालिके पतनके समय होती हैं। किन्तु एक काण्डकके पतनके बाद दूसरे काण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, अतः इनका भी जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बात यह है कि ये दो विभक्तियाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्राप्त होनेके प्रथम समयमें सम्भव हैं। किन्तु एक बार प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः दूसरी बार उसके प्राप्त करने में कमसे कम पल्यका असंख्यातवां भाग काल लगता है, अतः इनका जघन्य अन्तर पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण प्राप्त होता है। यह तो हुआ सब विभक्तियोंका जघन्य अन्तर । अब यदि इन सब विभक्तियों के उत्कृष्ट अन्तरका विचार करते हैं तो वह कुछकम अर्धपुद्गलपरि. वर्तनप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त करके . उनकी उद्व लना कर दी है वह कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक उनके बिना रह सकता है । ६३२५ आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका अन्तर ओघक समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, दो हानि और अवस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा दो १ त. प्रतौ पि इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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