Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] वड्डिपरूवणाए अंत
१६३ अंतरपरूवणाए जाणिज्जदि जहा सण्णिट्ठिदिसंतकम्मियएइंदिओ वि पलिदो० संखेज्जदिभागमेत्तं संखेज्जपलिदोवममेत्तं वा' द्विदिकंडयंण गेण्हदि त्ति ।
* असंखेजगुणहाणिहिदिविहत्तियंतरं जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
$ ३२१. कुदो ? दूगवकिट्टिडिदिसंतकम्मस्स दुचरिमफालीए पदिदाए असंखेजगुणहाणीए आदि कादण असंखेजभागहाणीए सव्वजहण्णमंतोमुत्तमंतरिय पुणो चरिमकंडयचरिमफालीए पदिदाए जहण्णमंतरं होदि । दूरावकिट्टिद्विदीए पढमद्विदिकंडयचरिमफालीए पदिदाए असंखेजगुणहाणीए आदि कादण पुणो असंखेजभागहाणीए सव्वुक्कस्सुकोरणद्धमत्ताए अंतरिय विदियट्टिदिकंडयचरिमफालीए पदिदाए लद्धमुक्कस्समंतरं ।
* असंखेज्जभागहाणिद्विदिविहत्तियंतरं जहणणेण एगसमत्रो।
६३२२. कुदो ? असंखेजभागहाणि करेंतेण एगसमयमसंखेजभागवढेि कादण पुणो विदियसमए असंखेजभागहाणीए कदाए एगसमय अंतरुवलंभादो। दो हानियोंको किया। इसप्रकार उक्त चार वृद्धि हानियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है । इस अन्तरप्ररूपणासे जाना जाता है कि संज्ञीकी स्थितिसत्कर्मवाला एकेन्द्रिय जीव भी पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात पल्यप्रमाण स्थितिकाण्डकको ग्रहण नहीं करता है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बतलाया है और यहाँ दो वृद्धि और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल भी उक्त प्रमाण बतलाया है जो अन्तर काज एकेन्द्रियोंमें ही प्राप्त होता है। अब यदि एकेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ करते होते तो दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण न कह कर कुछ कम कहना चाहिये था। पर ऐसा न करके यहाँ उक्त दो वृद्धि और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल पूरा असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बतलाया है इससे प्रतीत होता है कि एकेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ नहीं करते हैं।
* मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है।
६३२१ क्योंकि दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मकी द्विचरमफालिके पतन होते समय असंख्यातगुणहानि होती है। अनन्तर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातभागहानिके द्वारा अन्तर करके पुनः अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय असंख्यातगुणहानि होती है। इस प्रकार असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हुआ। दूरापकृष्टि स्थितिके प्रथम स्थिति. काण्डककी अन्तिम कालिके पतन होते समय असंख्यातगुणहानिका प्रारम्भ किया। पुनः सर्वोत्कृष्ट उत्कीरण काल तक असंख्यातभागहानिके द्वारा अन्तर करके दूसरे स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय असंख्यातगुणहानि की। इस प्रकार असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। ** मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है।
६३२२ क्योंकि असंख्यातभागहानिको करनेवाले जीवने एक समय तक असंख्यातभागवृद्धिको करके पुनः दूसरे समयमें असंख्यातभागहानिको किया तब असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है।
, ता. प्रतौ च इति पाठः ।
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